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साधकके लिये प्रावश्यक गुण-शील कर्म
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नहीं हुआ है । भगवानको स्पर्श करके पूजा करना चाहूं तो मेरे हाथ शुद्ध नहीं हैं । मानसिक पूजा करना चाहूं तो मन शुद्ध नहीं है। भाव शुद्ध होते ही कुडलसंगमदेव यहां आकर गोदमें उठा लेगा।
(३८६) अन्दरसे न धोये जानेसे वाहरसे धोकर पीते हैं। पादोदक प्रसाद आदिका रहस्य न समझकर साथ लाये हुए कपड़ोंमें डूबते रहे हैं। गुहेश्वरा। .
टिप्पणीः- शौचाशौच, आंखोंको दीखनेवाली बाह्य-शुद्धि आदिसे अंतः शुद्धि, अर्थात् मानसिक निर्मलता ही श्रेष्ठ है । परमार्थ साधनामें वही अधिक आवश्यक है। .
साधकके लिये श्रद्धाकी अत्यंत आवश्यकता होती है । श्रद्धाका अर्थ अपने ध्येयमें अचल विश्वास और उसको प्राप्त करके रहूँगा यह आत्मविश्वास । साधकमें इस श्रद्धाका उत्पन्न होना अत्यंत महत्वका है ।
वचन (३६०) श्रद्धासे पुकारा तो "प्रो!" कहेगा वह शिवजी किन्तु विना श्रद्धाके पुकारा तो प्रो कहेगा क्या ? जो श्रद्धा नहीं जानते, प्रेम नहीं जानते वह दांभिक भक्त हैं । विना श्रद्धाके, विना प्रेमके वैसे ही पुकारोगे तो वह मौन ही रहता है कूडलसंगमदेवा ।
(३६१) किसीने श्रद्धा की, प्रेम किया, अपना सिर उतार दिया, तो शरीर हिला-हिलाकर देखेगा तू, मन हिला-हिलाकर देखेगा, पास जो कुछ है वह सब हिला-हिलाकर देखेगा; इन सब बातोंसे नहीं डरा तो हमारा कूडलसंगमदेव भक्ति लंपट है।
टिप्पणी:-परमात्मा ही सर्वस्व है ऐसा विश्वास चाहिये। उसपर जो विश्वास है उसमें किसी भी प्रसंगसे न्यूनता नहीं आनी चाहिये। तभी इष्ट साध्य होगा । श्रद्धा परमार्थ पथका पाथेय है और जितनो श्रद्धाकी आवश्यकता है उतनी ही निष्ठाकी आवश्यकता है। निष्ठाका अर्थ है अपने कर्म में स्थिरता। अपने साधना पथके विषयमें दृढ़ता । हाथमें लिए कामको दृढ़ताके साथ, लगनके साथ आगे बढ़ानेकी शक्तिको निष्ठा कहते हैं। प्रत्येक काम लगनसे करते जाना चाहिये।
(३६२) निष्ठायुक्त भक्त बीच जंगलमें पड़ा तो क्या हुआ ? वही शहरसा लगेगा। और निष्ठारहित भक्त बीच शहरमें हो तो भी उसके लिए वह विना ओर छोरका जंगल होगा रामनाया।
(३९३) भक्ति करनेवालोंमें शक्ति होनी चाहिये । पकड़कर नहीं छोडूंगा यह भाव होना चाहिये । पकड़े हुए ब्रत नियमोंको जकड़कर रखनेका बल होना चाहिये । अपने अंखडेश्वर लिगमें मिलकर अलग नहीं होऊंगा ऐसी निष्ठा होनी