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साधकके लिये आवश्यक गुण-शील कर्म
विवेचन-साधकको साधनाका प्रारंभ करनेके प्रथम अपना सर्वस्व परमात्माके चरणों में अर्पण करके साधनाका प्रारंभ करना चाहिए । अपनी सब शक्तियोंकी जैसे क्रियाशक्ति, भावनाशक्ति, बुद्धिशक्ति तथा ध्यानशक्ति आदिकी यत्किंचित् भी अवहेलना न करते हुए परमात्माके चरणोंमें अर्पण करके साधनाका प्रारंभ करना चाहिए । यही वचनकारोंने कहा है।
इस प्रकारका जीवनयापन करते समय अथवा इस साधना पथपर चलते समय साधकके लिए अनेक प्रकारके गुण-शील और कर्मों की आवश्यकता होती है । इस विषय में वचनकारोंने जो मार्गदर्शन किया है उस ओर देखें।
साधकके लिए आवश्यक गुणोंमें विशेषरूपसे श्रद्धा, निष्ठा, चित्तशुद्धि, गुरुकारुण्य, निरहंकारिता, सदाचार, सत्य, अहिंसा प्रादि हैं। साधकको अपने समाजमें कैसे चलना चाहिए ? यह अत्यंत महत्त्वका है। क्योंकि उसका आचरण उसे इस सिद्धिकी ओर ले जानेवाला हो जाना चाहिए ।
साधकके अंतरंगके गुण और वाह्य आचारमें इतना मेल हो जाना चाहिए, कि वह दोनों उसको उच्च स्थितिमें ले जा सकें। सच पूछा जाय तो अंतरंग और बहिरंग एक ही व्यक्तिके व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप हैं। गुणोंका अर्थ अव्यक्त कर्म-शक्ति है और कर्मका अर्थ है व्यक्त गुण । साधक को इन दोनोंको परमात्माके चरणों में अर्पण करके अपनी साधनाका प्रारंभ करना होता है । नहीं तो वह मिथ्याचार कहलाएगा। ____अंतःशुद्धि सब साधनोंका आधार है। वीज कितना ही अच्छा क्यों न हो भूमि अच्छी न हो तो फसल अच्छी नहीं होगी।
वचन-(३८६) जबतक मन शुद्ध नहीं है तन नंगा रखकर क्या होगा? जबतक भाव शुद्ध नहीं है सर मुंडवानेसे क्या लाभ ? अपने वासनाविकारोंको जलानेके पहले विभूति रमानेसे क्या होगा ? इस आशयका वेष और उसकी भाषाको संगवसवण्णा गुहेश्वरकी सौगंध है यूं कहता है ।
(३८७) जिसका अंतरंग शुद्ध नहीं है उसको क्षुद्रता नहीं छोड़ती। जिनका अंतःकरण शुद्ध हो उनको पके केलेकी तरह सगुण दर्शन होता है। इसलिए . अंतरंग शुद्ध न होनेवालोंका संग नहीं करना चाहिए निजगुरु स्वतंत्र सिलिगेश्वरा।
(३८८) एक ओरसे थोड़ी-थोड़ी शुद्धि होने लगी है। अभी मन पूरा शुद्ध