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साधकके लिये आवश्यक गुण-शील कर्म २६६ विवेचन-प्रत्येक धर्ममें एक न एक प्रकारसे अहिंसा तत्त्वका उपदेश दिया है । भगवान सर्वव्यापी है । अर्थात् किसीको मारनेसे अथवा अपमानित करनेसे भगवानपर ही उसका आघात होगा ऐसा वचनकारोंने कहा है। किसी भी धर्म शास्त्र में हिंसाको उचित नहीं माना । वही बात अस्तेयकी है । जो वस्तु अपनी नहीं है वह अपने लिए लेना, अथवा अपनी होने पर भी आवश्यकतासे अधिक उसका संग्रह करना भी चोरी है। केवल स्वार्थ बुद्धिसे अत्यंत अल्प वस्तुको ग्रहण करना भी चोरी कहलाएगा अर्थात् दूसरोंकी वस्तु न लेना और अपनी आवश्यकतासे अधिक संग्रह करना और स्वार्थ बुद्धिसे किसी वस्तुका । स्वीकार न करना अस्तेय व्रत है।
वचन -(४२७) पराया धन त्याग दो मेरे भाई ! पराये धनको पास रखकर किया हुया त्याग त्याग नहीं भोग है। पराये धनको पास रखकर किया हुआ स्नान व्यर्थ है । चोरी छोड़कर त्यागमें डूबा तो हमारा कूडलसंगमदेव प्रसन्न होगा।
(४२८) रास्ते पर पड़े हुए स्वर्ण वस्त्रालंकारको भी मैंने छुआ, तो तेरी सौगंध है स्वामी ! तुम्हारे शरणोंकी सौगंध है । क्योंकि मैं तुम्हारे वचनमें हूँ ! ऐसे न करके, मैंने चंचल मनसे, प्राशासे, पराए धनको स्पर्श भी किया, उसको देखा भी तो तू नरकमें पड़ जायगा। इसलिए तू मुझे छोड़कर, जाएगा शंभुजक्केश्वरा।
टिप्पणी:--सत्य, अहिंसा, अस्तेयकी भांति ब्रह्मचर्य भी एक महत्त्वपूर्ण व्रत है । सब प्रकारसे स्त्री सहवासको छोड़ देना अथवा केवल अपनी धर्मपत्नीसे ही धर्म सम्मत सहवास रखना ब्रह्मचर्य है । इस विषय में वचनकारोंके वचन देखें।
(४२६) जहां देखा वहां मन दिया तो तेरी सौगंध ! तेरे भक्तोंकी सौगंध । परस्त्रीको महादेवीकी तरह देखता हूं कूडलसंगमदेवा ।
(४३०) स्त्रीको देखकर कांतिहीन न हो मेरे मन । उदंडतासे व्यवहार करनेवाले निर्लज्जोंको नरकमें रखे बिना क्या हमारा सॉड्डल देवराज चुप रहेगा। ___ (४३१) अन्नका एक कण भी देखा तो कौवे अपनी जातिवालोंको बुलाते हैं न ? एक बूंट पानी देखा तो मुर्गा अपने सगे संबंधियोंको बुलाता है । शिवभक्त होकर भक्ति-पक्ष न हो तो कौवे मुर्गेसे भी हीनतर है कुडलसंगमदेव ।
(४३२) थोड़ा-सा मिष्ठान्न चींटियोंके बिलके दरवाजे पर डालना क्या शिवाचार है ? वह तो पत्थरके नागके सामने दूध रख करके जीवित नाग देखते ही मारो-काटो कहनेकासा है । जब खानेवाला परमात्मा आता है भागो-भागो कहते हैं और न खानेवाले पत्थरके परमात्माके सामने छप्पन ढंगके भोज्य वस्तु