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वचन-साहित्य-परिचय .
(४०५) जिसमें प्राशा होती है वह कभी स्वतंत्र नहीं होता, मनकी श्राशाका अंतिम छोर जाननेवाला कैलाशके उस पार केवल तुम्हारा ही होकर रहेगा अंबिगर चौडैया।
(४०६) अरण्य में घर बनाकर हिंसक जंतुओंसे डरने लगे तो कैसे चलेगा? समुद्रके किनारे घर बनाकर समुद्रकी लहरोंसे डरने लगे तो भला कैसे चलेगा? हाटमें घर बनाकर शोरगुलसे डरने लगे तो कैसे चलेगा ? इस संसार में जन्म लेनेपर निंदा स्तुतिसे डरकर कैसे चलेगा? संसारमें जन्म लेनेपर, जो आता है वह सब, बिना क्रोधित हुए, दुखित हुए शांतभावसे सब सहन करना चाहिए चन्नमल्लिकार्जुना।
(४०७) अपनेसे अप्रसन्न होनेवालोंसे भला क्यों अप्रसन्न रहें ? क्या उन्हें क्या हमें; तनका क्रोध अपने बड़प्पनका घातक है। मनका क्रोध अपने ज्ञानका घातक है। घरकी आग अपना घर जलाना छोड़कर पड़ोसका घर जलाएगी कूडलसंगमदेवा ?
(४०८) अज्ञानीके लिए छोटा बड़ा है तो ज्ञानीके लिए भी छोटा बड़ा है क्या ? मृत्युको भय है, तो अजन्माको क्या भय ? कपिलसिद्धमल्लिनाथमें अक्कमहादेवीको स्थित देखकर उन्हें शरण शरण कहकर मैं कृतार्थ हुग्रा चानबसवरणा।
(४०६) चंदनको काटकर, सुखाकर, तराशकर, रगड़कर, जला डालनेसे भी क्या वह महकना छोड़ देगा? सोनेको लाख ठोक-पीटकर जलाकर, गला देनेसे क्या वह अपना सु-वर्ण छोड़ेगा? गन्नेको काट-काटकर, कोल्हूमें पेरकर उबाल देनेसे क्या वह अपनी मिठास छोड़ देगा ? पीछे किये हुए सारे मेरे हीन कर्म लाकर मेरे सामने रखनेसे भला मेरा क्या जाएगा और तुम्हें क्या मिलेगा ? मेरे पिता चन्नमल्लिकार्जुनदेवा तेरे मारनेपर भी शरण पाई हूं । शरण पानेवालीको न रोक ।
(४१०) किसीने अविचारसे सिरपर पत्थर पटका, किसीने या सिर- . पर गंधाक्षत रखकर पूजाकी, तो क्या हुआ ? किसीने पूजाकी तो क्या और प्रहार किया तो क्या ? मन चंचल न हो, जैसेका वैसा रहे ऐसा तुम्हारा वह समता गुण भुझमें आएगा क्या कपिलसिद्धमल्लिकार्जुना।
टिप्पणी:-ऊपरके वचनोंमें श्रद्धा, निष्ठा व्रत, अहंकार, क्रोध आदि कहकर सहनशीलताके विषय में कहा गया है। अब आगे निश्चल मन, उदारता, स्त्रीपुरुष संबंध, सदाचारका महत्त्व आदिके वचन हैं।
(४११) न तीर्थयात्राकी परिक्रमा करके पाया हूं, न गंगामें लाख बार डबकी लगाकर पाया हूं और उस कोनेके मेरुपर्वतके शिखरको स्पर्श कर आया