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साधनामार्ग-ध्यान योग, , .
विवेचन- मुक्तिके अनेक साधनामार्गामें ध्यान-योग भी एक साधनामार्ग है । उनको राजयोग, लययोग, अष्टांगयोग, अथवा पातंजलयोग भी कहते हैं । वचन साहित्यका अध्ययन करते समय इसका पर्याप्त प्रमाण मिलता है कि वचनकारों से अनेक वचनकारोंने इसका अभ्यास किया था। शिवमें समरसंक्य होना ही शिवशरणोंके जीवनका मुख्य उद्देश्य था । इसलिए वे अपने साधनामार्गको शिवयोग कहते हैं। वचनकारोंका शिवयोग और पतंजलिका राजयोग तत्वतः एक ही है। किसी भी साधनामार्गका अनुसरण क्यों न करें सवका उद्देश्य मनः संयम, चित्तगुद्धि है । चित्त वृत्तियोंका निरोध ही पतंजलिका राजयोग है। चित्तके संयमनको ही इस योगने अपना उद्देश्य मान लिया है। इसलिए यह योग प्रत्येक प्रकारके साधनामार्गमें सहायक है। .
समुद्रमें जैसे अनंत तरंगें उठती हैं वैसे ही चित्तसागरमें. अनंत संकल्प विकल्प उठते हैं। उन्हीं संकल्प विकल्पोंको वृत्ति कहते हैं । वृत्तिका अर्थ है तरंगें, लहरें; उन तरंगोंका उठना, गिरना, फैलना, और किनारेसे टकराकर, जहाँसे उठी थीं वहींको लीटना और पुनः उनका उठना तथा पुनः-पुनः वही सब । यही चित्त चांचल्यका कारण है। यदि वे वृत्तियां नहीं उठतीं तो जैसे शांत निर्मल जलाशयमें निरन नीलाकाराका प्रतिबिंब पड़ता है वैसे ही शांत चित्त सागरमें परम सत्यका प्रतिबिंब पड़ता है। इसलिए चित्तकी उन वृत्तियोंका निरोध करके, चित्तकी समता, एकाग्रता, अथवा स्थिरताकी साधना ही इस योगका ध्येय है। ___ इस योगको अष्टांग योग कहते हैं क्योंकि इसके पाठ अंग माने जाते हैं । किन्तु इस योगका मुख्य उद्देश्य तो चित्तकी एकाग्रता है । और.अंग नो चित्तकी एकाग्रताके लिये साधना रूप अथवा पोषक हैं । कुछ समय तक सिथर रूपसे ध्यान करनेकी शक्ति जब प्राप्त होती है अयवा ध्यानका अभ्यास बढ़ता है तब उनको धारणा कहते हैं और ध्येयमें चित्तका लय होनेपर समाधि । यम, नियम, प्रासन,प्राणायाम, प्रत्याहार यह ध्यानसिद्धि के पूर्व साधन हैं । इसलिए यह पूर्व योग भी कहलाता है । प्रामका रस चूमकर जैसे उसकी गुठली फेंक देते हैं वैसे ही वचनकारोंने अपनी साधना प्रणाली में पांतजल योगका मुख्य भाग ले लिया है और उसका समुचित उपयोग करके अन्य बातोंको छोड़ दिया है । इतना ही नहीं कहीं-कहीं उनका विरोध किया है। वचनकार तथा अन्य ध्यान योगियोम