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साधनामार्ग-ध्यान योग
२५३ टिप्पणी:-ऊपरके वचनोंमें संयम और ध्यान, विशेष करके निर्गुण ध्यान, का विचार किया गया है।
(३४८) अंतरंगमें प्रकाशनेवाली ज्योति ही सव ज्योतियोंका परमाश्रय है, वही अपने आप समरस रूपसे अंतरवाह्य व्याप्त है। मनके स्मरण-संकल्पके विस्मरणरूप उस ज्योतिलिंगके स्मरणसे सुखी बना रे मेरे निजगुरु स्वतन्त्र सिद्धलिगेश्वरा।
(३४६) पूर्वद्वार और अधोद्वार बंद करके, ऊर्ध्वद्वार खोलकर, अपलक दृष्टिसे अंदर देखता था तुम्हें टकटकी लगाकर । तुममें मन स्थिर हुआ था, सतत परम सुख पा रहा था मैं । अव नहीं डरूँगा, नहीं डरूँगा । जनन-मरण अतिक्रमण हो गया निजगुरु स्वतन्त्रसिद्धलिंगेश्वरमें समरस हो जाने से।
टिप्पणी:-इस वचनके पहले वाक्यमें उड्डियान बंध नामकी यौगिक क्रिया करते हुए की जाने वाली प्रक्रियाका वर्णन है। पूरक करते समय गुदद्वारसे अपानको अंदर खींचकर (मूलबंध क्रिया द्वारा) कुभक द्वारा कुंडलिनी शक्तिको जागृत करनेकी प्रक्रियाका वर्णन है । उपरोक्त स्थितिमें ध्यानमग्न साधककी स्थितिका वर्णन है।
(३५०) देह वासनाका अतिक्रमण कर, आत्मबंधनकी चटकनी तोड़ते हुए परात्पर प्राणलिंगसे मिलनेका साधन कौनसा है यह सव शिवभक्त समझे ऐसी भाषामें कहता हूं सुनो ! चौरासी आसनोंमें सर्वश्रेष्ठ आसन है शुद्धासन । वह शुद्धासन कैसे साधना है ? गुद गुह्य मध्य स्थानमें जो योनिमंडल नामका द्वार है उस द्वारसे बाएँ पैरकी एड़ी सटाकर, दाहिने पैरकी एड़ी मेंट्र स्थानपर सटाते हुए, अपना मेरुदंड सीधा रखकर बैठना। दोनों दृष्टियोंको एक कर उन्मनीय स्थानपर स्थिर करना, नेत्र, जिह्वा श्रोत्र, प्राण, और हृदयको छः अंगुलियोसे दवानेसे, मूलाधार स्थित मूलाग्नि, वायुसे मिलकर तीव्रतर गतिसे ऊर्ध्वको जाती है । वह मनको स्थिर करती है ; और उभय लिंगाश्रित महालिंगमें विलीन होकर अनंत सूर्याग्नि चन्द्रप्रकाशसे, वहीं सूक्ष्म होतो हुई अंगुल प्रमाण शुद्ध नक्षत्रसा अांखोंको करतलामलककी भांति प्रत्यक्ष हो दिखाई देनेवाले प्राणलिंगमें जो प्राण संभोग करना जानता है वही प्राणलिंग संबंधी है वही प्रलयादि रहित है अखंडेश्वरा।
टिप्पणी:-सिद्धासनमें बैठकर षण्मुखी मुद्रा साधकर लगाए गए ध्यानका अनुभव है।
(३५१) अर्धोन्मीलित अपलक दृष्टि नासिकाग्रमें स्थिर करके हृदय' कमलमें वसे हुए अचल लिंगमें ज्ञान दृष्टिमें देखते हुए तन, मन, इंद्रियोंको खोलकर, मन को निर्वात ज्योतिकी तरह स्थिर करके सत्य समन्वित होने की क्रिया जानने