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वचन-साहित्य-परिचय वाला ही निजगुरु स्वतन्त्रसिद्ध लिंगेश्वर ।
विवेचन-उपरोक्त वचनमें एक न एक प्रकारसे ध्यानयोगके सम्ब तत्व पाए हैं । वचनकारोंने अपनी समन्वयकी दृष्टिके अनुसार क्रियादि रहित ध्यान योगको महत्त्व नहीं दिया है । ज्ञान; भक्ति, कर्म, जैसे परस्पर पोषक हैं वैसे ही ध्यानयोगमें भी इन तीनोंका समन्वय होना आवश्यक है ऐसा. उनका कहना है। इसलिए वह लिंगरहित ध्यानका विरोध करते हैं। उसको हेय बताते हैं । . वे मानते हैं कि हर एक बातमें ध्यानकी आवश्यकता है। .
वचन--(३५२) यदि कुरूपी सुरूपीका ध्यान करने लगी तो क्या वह सुरूपी हो जायगी? निर्धन धनिकका स्मरण करने लगे तो वह धनिक हो जाएगा क्या? अपने पुरातनोंका स्मरण करके कहते हैं हम कृतार्थ हुए। जिनमें भक्ति और निष्ठाका अभाव है उनको देखकर गुहेश्वर प्रसन्न नहीं होता।
(३५३) कायक छोड़कर कर्म पूजाकी आवश्यकता प्रदिपादन करते हैं । कहते हैं जीवन संचार होते रहने तक ज्ञान जानना चाहिए । ज्ञान ध्यानसे देखने पर क्या ज्ञानसे शरीरकी मुक्ति होती है ? ध्यानसे दिखाई देने वाला प्रतीक मुझे एक बार दिखा दो न कैयुलिगत्तिअडिगूंटकडेयागवेडरिनिजात्मरामना।