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वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय
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आता था वह उसी दिन लिंगार्पण किया जाता था । बाद में प्रसादके रूपमें उसका ग्रहण होता इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में 'शरीर - परिश्रम और अपरिग्रह का मेल बिठाया था । सब प्रकारका कायक करनेवाले लोग वचन - कारोंमें थे । उनमें चमारका, डोमका, मरे हुए जानवरोंको चीरनेका कायक करनेवाले भी थे । ये सब अपना-अपना 'कायक' अपने इष्टलिंगको अर्पण करते । अपने नियमानुसार योग्यतानुसार जंगम-पूजा ' करते । दासोहम् २ करते । अपने कायक आदिसे बचे हुए समय में ज्ञान चर्चा करते । इस ज्ञान चर्चा में जो कुछ अपना अनुभव कहते वह अपने इष्ट लिंगके नामसे, गुरुके नामसे कहते, मानो उनको अपने शरीरका भान ही नहीं हो । नाम-रूपादि शरीरका है न और वह नाशवान है ! ग्रात्मा ही अमर है । वह अखंड है । वहाँ पर नाम-रूप श्रादि कहाँ से आएगा ? इस एकात्मभाव के अनुभवसे ही अनेक वचनकारोंके भिन्न-भिन्न स्थान -काल और परिस्थिति में कहे हुए वचनोंमें आश्चर्यजनक एकसूत्रता याई होगी ? जो कुछ हो, जैसे एक जगह स्वामी विवेकानंदजीने कहा है, "मैं नहीं तू हैका अनुभव करना ही धर्म है" वचनकारोंने यह अनुभव कर लिया था । इस लिए अमर साहित्यका निर्माण करने पर भी उनका 'मैं' नहीं रहा । वह ईश्वर के नाममें विलीन होकर ईश्वर रूप हो गये, मानो नदी समुद्रमें डूबकर समुद्र हो गयी, वरफ पानी में पिघलकर पानी हो गया ।
वचनकारोंने अपने इतिवृत्तके विषय में कहीं कोई निर्देश नहीं किया । अपने स्थान, कुल, आदिके विषय में कभी कुछ नहीं कहा। किंतु उनके वचन कन्नड़ - भाषी लोगोंके भावाकाशमें गूंज रहे हैं, कन्नड़ साहित्य-गगनमें चमक रहे हैं । करीब एक हजार वर्ष पहले उन्होंने जो रास्ता बताया था उस पर नाज भी कुछ लोग चल रहे हैं । उन्होंने कभी यह नहीं सोचा होगा कि हमें वचन लिखने चाहिए जो ग्रागे जाकर वचन साहित्य अथवा वचनशास्त्र कहलाएंगे । उन सव वचनोंको व्यवस्थित रूप देना चाहिए । आधुनिक व्यापारियोंकी तरह सजाकर रखना चाहिए उनको सपने में भी यह बात नहीं सूझी होगी । यदि ऐसी कोई बात उनके मनके किसी कोनेमें भी होती तो वह बुद्धि पुरःसर ऐसा प्रयत्न करते । किंतु विशाल वचन - साहित्य में कई गोते लगाने पर भी इस भावनाका नामो-निशान नहीं मिलता । उसकी गंध भी नहीं आती । और आये भी तो कैसे प्राए ? वह तो ईश्वर - साक्षात्कार के लिए पागल थे । उन्होंने अपना सर्वस्व ईश्वरार्पण कर दिया था । उनका विश्वास था कि साक्षात्कार ही हमारे जीवनका उद्देश्य है । उन्होंने अपने स्वभावधर्मानुसार साधना करते समय जो अनुभव
१. शैव संन्यासियोंका आदर सत्कार २. गुरु, लिंग या जंगमकी पूजा करके प्रसाद ग्रहण करना