________________
साक्षात्कार
१०७
की स्थिति है। साक्षात्कारी तो शरीरमें रहकर शरीरको जीते हुए रहता है । मनमें रहकर मनको जीते हुए रहता है । विषयों में रहकर विषयोंको जीते हुए रहता है । परमात्माके हृदयमें प्रवेश करके वहां पर अपना स्थान पाये हुए धन्यप्राण तथा दिव्य मानव होता है ।
साधक अपने अंतरंगमें आत्यंतिक सत्यका जो अनुभव करता है उसको साक्षात्कार कहते हैं । अथवा वह अपने अंतरंगकी स्फूर्तिसे जो सत्य दर्शन करता है वह साक्षात्कार है । यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही सत्यकी कसौटी है । साक्षात्कार हुमा अथवा नहीं, यह साधकको प्रात्म-साक्षीसे ही जान लेना होता है । ऊपर लिखे हुए गुण इस बातको जान लेने में साधन हो सकते हैं । साक्षात्कारी के बाहरी जीवनमें जो लक्षण दीखते हैं अथवा साक्षात्कारी के चाल-चलनसे जो भाव टपकते हैं उससे भी सर्वसामान्य लोग कुछ जान सकते हैं, कुछ अनुभव कर सकते हैं । तत्वतः साक्षात्कारका अनुभव एक है। किंतु साधककी योग्यता, उसकी साधना-पद्धति, उनकी शक्ति प्रादिके कारण उसके वाहरी रूप में कुछ अंतर हो सकता है। हो सकता है कि कोई साधक क्रिया-प्रधान रहा हो। कोई भावना-प्रधान और कोई चिंतन-प्रधान रहा हो। किंतु साधकके अंतःचक्षुत्रोंको सत्यका दर्शन होता है । उसके संपूर्ण जीवनपर उसका प्रभाव पड़ता है । उसकी बुद्धि निश्चल होती है। उसके भाव शुद्ध होते हैं । तेजस्वी होते हैं । कर्म निष्काम होता हैं। सर्वलोकहितके अनुकूल होता है । उनका चित्त एकाग्र होता है । आचार-विचारसे नीति, धर्म प्रस्फुटित होते हैं। अपनी शक्तिसे वह सत्यका दर्शन करता है। इसलिए वह अहंकारशून्य होता है । वह नम्र होता है । निष्काम और निरपेक्ष होता है। सदैव उनकी बातों और चाल-चलनसे कृतार्थता टपकती है। मानो उसको जो कुछ पाना था वह पा लिया हो। और कुछ पानेको रहा ही नहीं । ऐसी स्थितिमें वह जो कुछ करता है उसके कर्तव्यका भार अनुभव नहीं होता । वह निराभार बनता है । मानो किसीके हाथका यंत्र बनकर काम कर रहा हो । वह निष्काम बनता है । निरपेक्ष रहता है। हो सकता है वह पंडित हो । भक्त हो । ज्ञानी हो । या मौनी हो । सदैव वह किसी अपार्थिव आनंदकी माधुरी चखता रहता है । किसी गूढ संगीतका रसपान करता रहता है । इसलिए वह मौन होनेपर भी बोलता रहता है । बोलकर भी मौन रहता है । वह देखकर भी नहीं देखता । सुनकर भी नहीं सुनता । खाकर भी नहीं खाता। वह सबसे निर्लेप रहता है। निष्काम रहता है । निरपेक्ष रहता है। अपने सत्य-दर्शनके प्रकाशमें जीवन नाटककी भूमिकाका नृत्य करता रहता है। इसी तरह जीवन बिताकर जहांसे आया था वहां जाता है । महात्मा कबीरके शब्दोंमें वह यह झीनी चदरिया ज्यों-की-त्यों धर देता है।