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वचन-साहित्य-परिचय () जो क्रियायें तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकती उनसे मैं तुम्हारी पूजा कैसे करूं ? मेरे नाद-विन्दु जहाँ पहुँच नहीं सकते वहांका तुम्हारा गान मैं कैसे गाऊँ ? शरीर पहुँचना तो दूर रहा जिसकी गहराईमें दृष्टि भी नहीं पहुंचती उसे हथेली पर कैसे उठाऊँ ? चन्न मल्लिकार्जुना तुम्हें देख-देखकर मैं चकित होती रहती हूँ !
(8) विना मां बापके बच्चे ! तुझसे तू ही पैदा होकर वढ़ता-बढ़ाता रहा न? अपने परिणामसे ही तुझे जीवन मिला है न ? भेदकोंके लिए अभेद्य होकर तुझे तूही प्रकाशित कर रहा है न ? तेरा चरित्र तू ही जान सकता है गुहेश्वरा !
टिप्पणी:--जीवन मिला है इस अर्थके लिये मूल वचन में "प्राण-प्राप्ति" शब्द प्रयोग किया गया है।
(१०) सहस्र कुत्रोंके जल में प्रतिबिवित होनेवाला सूर्य एक ही न होकर अनेक है क्या ? सब देहोंमें भरकर, भ्रममें डालने वाली पर-वस्तु बिना तेरे और कोई नहीं है अखंडेश्वरा ।
(११) दो, तीन, चार ईश्वर हैं ऐसा अहंकार से न वोला कर । ईश्वर एक ही है देख ! दो तीन चार कहना असत्य है रे ! कूडल संगम देव के अलावा. और कोई ईश्वर नहीं कहते हैं वह वेद ! ।
(१२) वह सत्यवस्तु एक ही है। अपनी लीलामें अनेक होनेकी कला जाननेवाला वह एक ही है। अपने अलावा और कुछ न होनेका भाव अपने आप होता है सिम्मलिगेय चन्नराम ।
(१३) शून्यमें शुन्य मिलनेकी सीमारेखा क्या होगी? दूधमें दूध मिलनेपर क्या उन दोनोंको अलग करके पहचाना जा सकता है ? तुममें मिलकर विलीन होनेके बाद भी तुममें मिलने वालेका चिन्ह बना रहेगा क्या अखंडेश्वरा।
टिप्पणी:--"तुममें मिलनेके" अर्थ में मूल वचनमें "निजक्य" शब्द है । कन्नड़में निज शब्दके दो भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। एक सत्य और एक अपने आप अतएव "निजैक्य प्राप्त" होनेका "अपने आपमें अथवा सत्यमें विलीन" होना दोनों ही अर्थ होते हैं।
(१४) आदि-अनादि नहीं कहकर, अंहता-ममता नहीं कहकर, शुद्ध-अशुद्ध नहीं कहकर, शून्य-निःशून्य नहीं कहकर, समस्त चराचर सृष्टि नहीं कह कर, गुहेश्वरा तू अकेला ही न होनेके समान रहा है न!.
(१५) पृथ्वीका गोला निगलकर, पानी सब पीकर, आगको कुचल कर,
१. वीरशैवोंमें होलीपर शिवलिंग रखकर पूजा की जाती है ।