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वचन - साहित्य परिचय
इसके भान तथा ज्ञानके सातत्य से, इस ज्ञानमें स्थित, स्थिर होना ही साक्षात्कार है ।
इस प्रकारकी प्रतीति होनेके लिए वचनकारोंने एक दिव्य मार्ग दिखाया है । उसको पूरण अथवा सर्वार्पण मार्ग कहा गया है । इसीको वचनकार समन्वय योग अथवा शरण मार्ग कहते हैं ।
साधकको अपना सब कुछ शक्ति युक्ति भक्ति, तन, मन, प्रारण, भाव, इंद्रिय, कर्म यदि सर्वस्व अनन्यभावसे, निरपेक्षभावसे भगवान के चरणोंमें अर्पण कर देना चाहिए | श्वासोच्छवास के सहज कर्मसे लेकर प्रयत्नपूर्वक किये जाने वाले प्रत्येक महान् कर्म तक, सबके सब परमात्मार्पण भावसे करना ही इस मार्गका मूल मंत्र है । साधकका प्रत्येक कर्म परमात्माको अर्पण करना हो सर्वार्पण मार्ग कहलाता है । इसमें साधक के स्वभावानुसार, भक्ति, ज्ञान, कर्म ध्यान प्रादिका समन्वय होता है जिससे साधककी श्रोरसे किसी एक विशिष्ट मार्ग से चिपके रहने की आवश्यकता नहीं होती । इसलिए यह समन्वय - मार्ग कहलाता है । इस ढंग से साधना करनेसे पहले साधकको संपूर्ण रूपसे परमात्मा की शरण जाना होता है । इसलिए इसे शरणमार्ग कहते हैं ।
सर्वार्पण भाव से जब साधक अपनी साधना प्रारंभ करता है तब उसकी सभा शक्तियाँ जैसे क्रियाशक्ति, भावशक्ति यदि उसको क्षरणशः परमात्माकी ओर ले जाती हैं । धीरे-धीरे उसका अहंकार जलने लगता है । उसके दोष जलने लगते | उसका जीवन शुद्धातिशुद्ध होता जाता हैं; और साक्षात्कार होता है । आत्यंतिक सत्यका प्रत्यक्ष बोध होता है ।
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उनके
इस मार्ग में साधकों में समय-समय पर जिन-जिन शक्तियोंका विकास होगा अनुसार साधक प्रधानतः भक्तियोग, कर्मयोग, व्यानयोग, ज्ञानयोग यादि का आचरण करता हुआ दिखाई देगा । किंतु तत्वत: यह समन्वय योग है ! शरण मार्ग है । परमात्मार्पण-योग है ।
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अबतक वचनकारोंकी साधना-प्रणालीका विवेचन किया जिसकी आधारशिला सर्वार्पण है । अब इस मार्गके विषय में जो वचन हैं उसका विचार करें इस अध्याय में केवल सर्वार्पिणका ही विचार किया गया है । समन्वय मार्ग में आने वाले कर्म, ज्ञान, ध्यान, भक्ति श्रादिके विषय में आगे पृथक् श्रध्याय में लिखा गया है ।
वचन - (१९६) ग्रात्म-परमात्म योग जाननेसे पहले, ज्योतिमें स्थित ग्रात्मज्योति को जानना चाहिए, शब्द में स्थित परमात्माको जानने के पहले आत्म- परमात्म योग नहीं जानना चाहिए। श्रात्म-परमात्म योग जानने के पहले स्मरण- विस्म