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वचन - साहित्य - परिचय
( १९४) शरीर - जन्य विकारोंसे अज्ञानके अंधकार में फंसकर अकुलाकर - तड़पता हुआ गल रहा हूं मेरे स्वामी ! मानसिक विकारोंके अज्ञान बवंडर में फंसकर धूल में मिलकर रंग ही उड़ गया है मेरा । मेरे नाथ इस तन-मन के विकारोंका विनाश करके अपनी भक्ति में अनुरक्त रखकर मेरी रक्षा करो अखंडेश्वरा ।
( १९५ ) मैं कहां से आया ? मुझे कैसे मिला यह शरीर ? श्रागेकी मेरी गति क्या है ? आदि नित्यानित्य विचार जब तक पैदा नहीं होंगे तव तक यह व्याकुलता नहीं मिटेगी निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलगेश्वरा । तुम्हारे ही दिये गये भवांतर में श्राता हुआ देख मुझे दुःख होता है ।
टिप्पणी- इस अध्यायमें मोक्षेच्छाका विचार किया गया धागे उसके साधन-मार्गीका विचार किया जाएगा ।