Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 235
________________ २२२ वचन-साहित्य-परिचय मधुर हो गये हैं, और उनके प्रालिंगनसे सारा शरीर खिल गया है अंतरंगवहिरंगमें प्रीतमसे मिल करके सुखी हुआ हूँ उरिलिंगदेव । टिप्पणी :-भगवानको अपना प्रीतम मानकरके अपना सब कुछ उसको समर्पण करनेसे साधकके अंगांगमें भगवानका अधिष्ठान हो जाता है ऐसा वचनकारोंका अनुभव कहता है। (२०३) मनके महाद्वार पर तू सदैव दक्षतासे खड़ा है न मेरे स्वामी ! वहां पाई हुई वस्तुओंका पूर्वाश्रय काटकरके तू ही उनको स्वीकार करता है न ? तेरा स्पर्श हो सकता है न, या तेरा स्पर्श नहीं हो सकता इसका तेरे मनका तू ही साक्षी है कूडल संगमदेव । टिप्पणी :-सर्पिण करनेवाला साधक जो कुछ करता है परमात्माके स्मरणसे ही करता है। परमात्माको साक्षी रखकरके करता है तथा जो कुछ. पाता है परमात्माका प्रसाद मानकरके पाता है। इसलिए किसी वस्तुका पूर्वाश्रय अर्थात् वस्तुका दोष, जो बद्धावस्थाका कारण है, नहीं रहता। (२०४) पागलकेसे काम करते हैं। रहस्य न जानकर किया हुआ कर्म . बंधनकी वृद्धि और शांति-समाधानका विनाश करता है । कूडल चन्नसंगैय तुम्हारे शरणोंका सतत सहज कर्म लिंगक्यका साधन है। (२०५) शरीर लिंगार्पण हुआ तो कर्म नहीं है । जीव लिंगापित हुआ तो जन्म नहीं है। भाव लिंगार्पित हा तो भ्रम नहीं और ज्ञान लिंगार्पित हुआ तो उस प्रसाद-ग्रहणकी प्रतीति भी नहीं। माया-प्रपंचादिका निषेध करके वह सब तुम्हें अर्पण करनेसे "मैं ही शरण हूँ।" जैसे अनेक वस्तुओंको एक जीव करके सांचे में ढालते हैं जैसे पानी जम करके भोले बनते हैं, दीपक तेल पीता है, मोती पानी पीता है, प्रकाश शून्यको निगल जाता है, वैसे महाधन सद्गुरू सोमनाथ तुम्हारे शरण (अपना) नाम मिटे हुए लिंगक्य हैं। (२०६) कानोंसे सुने हुए शब्दोंका सुख, आंखोंसे देखे हुए रूपका सुख, चर्मसे छुए हुए स्पर्शका सुख तुझे समर्पण करके अनुभव करनेवाला निजगुरु स्वतंत्र सिलिगेश्वरका प्रसादि है। (२०७) वृक्ष-लता-पेड़-पौदोंको लगाकरके उन्हे पालपोसकर भी काटकर, पकाकर खानेके दोषका भला कौन-सा प्रायश्चित्त है ? यह चराचर सब, एक इंद्रियसे प्रारंभ करके पांच इंद्रिय तककी जीव-राशि ही है न ? इसलिए कूडल संगमदेवके शरण इस सवको लिगापित करके प्रसाद सेवनकर जीते हैं। विवेचन-प्रत्येक देहधारीको, चाहे वह साधक हो या सिद्ध जीवन बिताना अनिवार्य है। उसके लिए श्वासोच्छवास, खाना, पीना, संघना आदि क्रियायें करना भी अनिवार्य है। भोजनमें संपूर्णतः निरामिश होने पर भी वनस्पतिकी

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