________________
साधना-मार्ग - ज्ञानयोग
विचवेन - साधक सर्वार्पण भावसे अपना सर्वस्व परमात्माके चरणोंमें अर्पण करके साधनाका प्रारम्भ करता है । वह अपनी भावशक्ति, क्रियाशक्ति, चितनशक्ति तथा बुद्धिशक्तिको सम्पूर्ण रूप से भगवान के सम्मुख रखता है । किन्तु साधकके स्वभाव और उसकी परिस्थितिके अनुसार, भिन्न-भिन्न साधकोंमें इन शक्तियोंका परिमाण और प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं । इसमें न्यूनाधिक होता है । वचनकारों का कहना कि सिद्धिके लिये इन चारों शक्तियों का समन्वय श्रावश्यक है । किन्तु इन शक्तियोंके लक्षण क्या हैं ? इनका कार्य क्या है ? इन सबका परस्पर सम्बन्ध क्या है ? इन सब बातोंका विचार करना आवश्यक है । इसका विवेचन - विश्लेषण करते समय यह स्मरण रखना चाहिए कि सर्वार्पण इसकी आधार शिला है ।
साक्षात्कार के लिए ज्ञान, भक्ति, कर्म, तथा स्थिर ध्यान की श्रावश्यकता है । साथ ही साथ संशयातीत आत्मज्ञान चाहिए, चित्तकी एकाग्रता चाहिए । वचनकारोंका कहना है श्रद्धायुक्त सत्यज्ञान, परमात्माकी अनन्य भक्ति, ईश्वरे-. काग्र चित्त, भगवदर्पण किया निष्काम सत्कर्म, इनसे ध्येय सिद्धि होगी । यहाँ ज्ञानका अर्थ प्राध्यात्मिक ज्ञान है । मैं कौन हूँ ? कहाँसे आया और कहाँ जाना है ? यह संसार कहांसे और कैसे हुआ ? इसके मूल में क्या है ? इसके मूलमें जो सत्य तत्त्व है उसका, मेरा तथा इस विश्वका सम्बन्ध क्या है ? इन सब प्रश्नोंका यथार्थ उत्तर ही ज्ञान है । वही आत्म-ज्ञान कहलाता है । वह ज्ञान शुद्ध बुद्धिको अर्थात् जिज्ञासापूर्ण निःस्वार्थ बुद्धिको ज्ञात हो सकता है। इस ज्ञानमें निस्सन्देहरूपसे चित्त स्थिर रहा तो जीवनमें समता, सौम्यता, समाधान, शांति और परम सुखकी प्राप्ति होती है । वही आत्म-सुख है । वही शाश्वत सुख है । वही मुक्ति सुख है । वह प्राणिमात्रका श्रात्यंतिक ध्येय है ।
केवल ज्ञान, भक्ति, कर्म, अथवा ध्यानसे मुक्ति प्राप्त होना असंभव है । मुक्ति के लिए इन चारों शक्तियोंकी आवश्यकता है । वचनकारोंने इसके लिए समन्वयात्मक पूर्णं योगका मार्ग सुझाया है । अर्थात् वचनकारोंने हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग न कर "शिवयोग " अथवा "परमात्मयोग" अथवा "शिवैक्य" अथवा "लिंगैक्य " अथवा "निजैक्य" आदि शब्दोंका प्रयोग किया है । वचन साहित्य में विना ज्ञानकी क्रिया, अथवा विना क्रियाके ज्ञान, क्रिया- रहित भक्ति, अथवा भक्ति-रहित