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वचन- साहित्य- परिचय
( २५६ ) हाथी बड़ा है तो उसके अंकुशको छोटा कहा जा सकता है: क्या ? पर्वत बड़ा है तो वज्रको छोटा कहा जा सकता है क्या ? वैसेही अज्ञान अनंत है इसलिए तेरे नामको छोटा कहा जा सकता है क्या कूडल संगम देव तुम्हारी कृपाकी महानता तेरे सिवा और कौन जानेगा स्वामी !
(२६०) पुण्यकाल में शत्रु मित्र बन सकते हैं, पुण्यकाल में छुई हुई मिट्टीसोना बन जाती है, पुण्यकाल में सर्पकी पुष्पमाला बन सकती है, पुण्यकाल मेंपरकीय स्वकीय बन सकते हैं । भक्ति से ऐसे पुण्यका उदय होता है, भक्ति विकृत हुई कि पुण्य भी सड़ ही जाएगा, ऐसी भक्तिका पुण्य मिलने से चन्नबसवण्ण जीत गया कूडलसंगमदेव |
(२६१) तेरे दर्शन में अनंत सुख है तो तेरा मिलन परम सुख है । आठ. करोड़ रोम कूप सब श्राखें वन करके देखते थे, कूडलसंगमदेव ! तुम्हें देखकर प्रियाराधना से प्रांखें उनींदी सी हो गई ।
विवेचन - वेद, शास्त्र, पुराण, तर्क श्रादिकी अपेक्षा भक्ति प्रत्यक्ष फलदायी हैं । प्रत, ब्रह्म-शून्य आदिके वाणी- विलाससे साक्षात्कार नहीं होता । भक्ति से भक्ति बढ़ते जाने से अपने आप अद्वैतानुभव आएगा । अज्ञान कितना ही अथाह : क्यों न हो, छोटेसे दीपकसे अंधकार नष्ट होनेकी भांति परमात्माके सतत नाम -- स्मरण से वह नष्ट होगा ही । भक्ति परमपावन जीवनका पुण्यमय मार्ग है । वचन-कारों का कहना है उससे अनंत सुख प्राप्त होगा । परमात्मा भी भक्ति प्रिय है ।" वचन - ( २६२ ) रहस्य पाकर भी लंबासा रास्ता खोजो नहीं, श्रकारण खपो (अपने आपको मिटाओ ) नहीं, एक बार उसकी शरण जाकर देखो, वह प्रसन्न हुआ कि क्षणभर में मुक्ति मिलेगी, सिद्धि मिलेगी, कूडलसंगमदेव “भक्ति लंपट " है ।
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टिप्पणीः- -भक्तिलंपट; यह वचनकारोंका शब्द प्रयोग | लंपट शब्द ठीक वैसा ही है जैसा फिदा या आसक्त । वचनकारोंने स्थान-स्थान पर भगवान को भक्त और भक्तिपर आसक्त बताया है ।
(२६३) अपने में खोजकर पानेका विषय बाहर खोजनेपर कैसे मिलेगा ? मेरा भगवान जहां है वहां आओ ऐसा अपने मनको बार-बार समझाता हूँ मेरे कपिलसिद्धमल्लिकार्जुना ।
(२६४ ) तू न वेद - प्रिय न शास्त्र- प्रिय, ऐसे हो
तू नाद - प्रिय भी नहीं है
भी नहीं, तू इन सबसे
न तू स्तोत्र - प्रिय है न क्रिया-प्रिय, तू युक्ति- प्रिय असाध्य है; और भक्तिप्रिय है; इसलिए तेरी शरण आया, मेरी रक्षा कर कपिल सिद्धमल्लिकार्जुना ।