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साधना मार्ग-भक्तियोग विवेचन-सवका एकमात्र ध्येय मुक्ति है । साक्षात्कारसे वह प्राप्त होती है । साक्षात्कार कहें या आत्मज्ञान दोनों एक हैं । केवल नामका ही अंतर है। "किसी प्रकारकी साधना क्यों न करें, जबतक प्रात्मज्ञान नहीं होता, साक्षात्कार -नहीं होता तबतक मुक्ति मिलना असंभव है। वह अात्मज्ञान शुद्ध बुद्धिसे प्राप्त किया जा सकता है। किंतु वचनकारोंका कहना है कि भक्ति अन्य साधना पद्धतियोंसे अधिक सुलभ है । वचनकारोंने भी सव साधना मार्गोंमें भक्तिको प्राथमिकता दी है जैसे आगमकारोंने किया है । ___ जैसे ज्ञान वुद्धि-शक्ति का कार्य है वैसे भक्ति भाव-शक्तिका कार्य है । मनुष्य जैसे-जैसे अपने भावोंको शुद्ध करता जाता है, उन शुद्ध भावोंको अनन्य भाव से शिवार्पण करता जाता है अथवा परमात्मार्पण करता जाता है वैसे अत्मज्ञान शुद्ध और दृढ़ होता जाता है । उस प्रात्मज्ञानके प्रकाशमें अंतरंग प्रकाशता है। उज्वल बनता है, यह वचनकारोंका अनुभव-सिद्ध कहना है । हमारा प्रेम विविध “विपयोंमें प्रवाहित होकर बंट जाता हैं, उस प्रेमको परमात्मामें केन्द्रित करके निरहेतुक, निरपेक्ष भावसे, उसमें तन्मय होना ही भक्ति है । अपने हृदयसिंहासनपर विराजमान 'मैं" रूपी "अहम्" को उतारकर परमको विठानाही 'भक्तिका पहला काम है। वह आत्मनिवेदन अर्थात् भक्तिकी परमावधिसे संभव हो सकता है।
ज्ञानमार्गके साधकको परात्पर सत्यवस्तुमें व्यक्तित्वकी कल्पना करनेकी आवश्यकता नहीं होती, किंतु भक्ति-मार्गमें भक्तको परमात्माको व्यक्तित्व देना आवश्यक हो जाता है । इसलिए भक्ति मार्गमें परमात्माको भक्तकी मां, उसका पिता, बंधु, मित्र, स्वामी, प्रीतम आदिकी भूमिकामें काम करना पड़ता है । यही भक्ति-मार्गको महिमा है ।
वचन-(२५७) वेद वाचनकी वात है तो शास्त्र वाजारकी गप, पुराण गुंडोंकी गोष्ठी ? और तर्क तर्कटोंका वाग्जाल । किंतु भक्ति भोजन-का-सा प्रत्यक्ष लाभ है और गुहेश्वर तो सर्वोत्तम धन है ।
(२५८) मैं अद्वैतकी बातें करके अंहकारी बना, और ब्रह्मकी बातें करके “भ्रमिष्ठ । शून्यकी वातें करते हुए सुख-दुःखका भोगी बना, और गुहेश्वरा अपने · शरण-संग वसवण्णको सत्सानिध्यसे सद्भक्त बना ले रे !