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वचन - साहित्य - परिचय
हुए ज्ञानमें लिंगकी सत्यता देख देखा हुआ ज्ञान ही "मैं हूँ" ऐसा बोध होगा । दृश्य और द्रष्टकी अद्वैत स्थितिका भान होना ही तुम्हारा ज्ञान निजगुरु स्वतन्त्र सिद्धलिंगेश्वरा ।
( २३३ ) सब कुछ जानकरके क्या लाभ है रे ? अपने आपको जानना छोड़कर ? अपनेमें जब अपना ज्ञान है तब दूसरोंके पास जाकर उनसे पूछने से क्या मिलेगा ? चन्नमल्लिकार्जुना तू ही ज्ञान होकर श्रागे आकर दिखाई देता है, तुझसे ही सब जान लेती हूं प्रभु !
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( २.३४ ) बोधका अर्थ क्या कान फूंककर मंत्र देनेका बोध है ? नहीं ! नहीं !! बोधका अर्थ तन- मनका साक्षी तू ही परम गति परम-वस्तु है यह जानना ही सच्चा बोध है रे कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन ।
( २३५) अपने आपको जाने हुए को वह ज्ञान ही गुरु है । ज्ञानसे अज्ञान नष्ट होता है । अज्ञान नष्ट होकर द्रष्टा दृश्य भेद नष्ट होना ही गुरुत्व है ।. सब कुछ प्राप बननेपर भला छूकर जाननेको और क्या रहा ? श्रात्म स्थिति में मनुष्यके लिए निर्णय निष्पत्ति ही गुरु है । इस भांति अपने आप गुरु होनेपर भी जगणकी भांति गुरु होना चाहिए ।
टिप्पणी :- " मैं कौन हूं" यह जाननेका ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ ज्ञान है । उसे छोड़करके और सबको जानना व्यर्थ है । अपने आपको जानकर गुरु तो हुआ किन्तु "मैं कौन हूँ ?" इस प्रश्नका उत्तर लीजिए ।
( २३६) देह मैं नहीं, जीव मैं नहीं, यह शिवने प्रतीत किया था । जीव-शिवमें कोई भेद नहीं है । जहां पानी है वहां, जैसे ग्राकाशमें रवि, तारिका, मेघादि होते हैं, वैसे पूर्ण वस्तु चिदाकाशमें शिव, जीव, माया, प्रकृति श्रादि होते हैं कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुना ।
( २३७) एक ही वस्तु अवस्थात्रय में किंचित् ज्ञानसे जीव कहलाया । उस जीवको उसके कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्राधीन होकर यह देह "मैं" कहने लगी । मैं कहने की वासनामें कालत्रयके आधीन यह देह स्वतन्त्र - पराधीन होकर रही यह देख रे कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुना ।
टिप्पणी :- अवस्थात्रय जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति ।
(१३८) जाना तो "सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" ऐसा श्रुति कहती है । यदि भूला तो साक्षात् सच्चिदानंद भाव है ऐसा कैवल्योपनिषद कहता है । ज्ञान वस्तुस्वरूप है और अज्ञान माया स्वरूप अर्थात् मैं निर्वलय निरवय स्वरूप हुआ देख कपिल सिद्धिमल्लिकार्जुन ।
( २३९ ) तेरी देह देखी तो पंच भौतिक है, तुझे देखा तो जीवांशिक है, तेरा घन देखा तो वह कुवेरका है, तेरा मन देखा तो वह वायुसे मिला है, और सोचा