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साधना-मार्ग-ज्ञानयोग
२२७ क्रिया, ज्ञान-रहित भक्ति अथवा भक्ति-रहित ज्ञान आदि ऐसे किसी एकका स्वतन्त्र स्थान नहीं है। उनके कथनानुसार, इन चारोंके समन्वयसे ही मुक्ति संभव है। नहीं तो मुक्ति असम्भव है ।
ज्ञानके विषयमें वचनकार क्या कहते हैं यह देखें।
वचन-(२२५) न भूमि तुम्हारी है न हेम तुम्हारा, न कामिनी ही तुम्हारी है । वह विश्वको दिया हुआ नियम है । तुम्हारा अपना कुछ है तो वह केवल ज्ञानरत्न ही है। उस दिव्य रत्नको संभालकर, उससे अलंकृत होकर, हमारे गहेश्वरलिंगमें स्थिर रहो तो तुम जैसा महान धनवान दूसरा कोई है रे मेरे मन ?
(२२६) छोटा हो तो क्या बड़ा हो तो क्या ? ज्ञानके लिये छोटा बड़ा है क्या ? आदि-अनादिसे रहित इस अनन्त कोटि ब्रह्मांड गुहेश्वरलिंगकी दया हुई तो तू ही एक मात्र महाज्ञानी है ऐसा प्रतीत होगा देख चन्न बसवण्ण ।
टिप्पणी :-चन्नवसव वचनकारोंमें सबसे छोटे थे ।
(२२७) शरीरमें निर्मम, मनमें निरहंकार, प्राणमें निर्भय, चित्तमें निरपेक्ष, विषयोंमें उदासीन, भावोंमें दिगम्बर, ज्ञानमें स्थिर होने पर सौराष्ट सोमेश्वर लिंग ऐसा कुछ दूसरा रहा ही नहीं।
(२२८) सूर्योदयके बाद क्या अंधकार रहेगा? पारसमणि पा जाने पर 'क्या दारिद्र्य रहेगा ? शिवज्ञान संपन्न ज्योतिर्मय लिंगको कैसा अंग, निजगुरु स्वतन्त्र सिलिगेश्वर ही स्वयं बनने पर ?
टिप्पणी :- ऊपरके वचनोंमें ज्ञानका महत्त्व कहा गया है। वही मनुष्यकी सबसे बड़ी संपत्ति है। उससे हीन गुण सब राख हो जाते हैं। सत्य-ज्ञानको आत्मज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान प्रात्मामें प्रात्माको ही होता है ।
(२२६) सधाया हुआ हाथी हाथीको पकड़ेगा अन्य जानवरोंको नहीं। 'निराकार निराकारको ही पकड़ेगा और किसीको नहीं, अरूपके रूपको पकडं गा कपिलसिद्धमल्लिकार्जुना।
(२३०) अपने में अपनेको जानकरके देखा तो और कुछ नहीं है । ज्ञान अपनेमें ही समाया हुआ है। अन्य भावोंका स्मरण न करके अपने में आप रह सकें तो अपने में आप ही गुहेश्वरलिंग है।
(२३१) अपने में स्थित ज्ञान भला औरों में कैसे दिखाई देगा? अपनेमें आप रहनेकी भांति है । अपने में ही पैदा होकर अपने श्राप विकसित होने वाले ज्ञानका माहात्म्य क्या कहूँ रामनाथा ?
(२३२) अपने में आपको प्रत्यक्षानुभवसे प्रतीत करके देखते हुए उस जाने