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साधना-मार्गः सर्पिण
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रण. नष्ट नहीं होगा। और यह नष्ट होनेसे पहले माया जाल नहीं टूटेगा । माया जाल टूटनेसे पहले अहंकार नष्ट नहीं होगा। अहंकार नष्ट होते ही निज . गुरु स्वतन्त्र सिलिगेश्वर में उसी जीवका जीवपरमैक्य नहीं होगा। . टिप्पणी :-"अहम्" को "परम्” में उंडेल देना ही सर्पिण है । सर्वार्पण अहम्को नष्ट करनेका सर्वोत्तम मार्ग है।
(१९७) शरीरके गुणोंको अर्पण करने पर मन मुग्ध होना चाहिए, मनके गुणोंको अर्पण करनेसे इंद्रियोंकी शुद्धि होनी चाहिए, तन-मन इंद्रियोंकी शुद्धि होकर उनको शांति समाधान प्राप्त होनेके पहले अर्थात् लिंग नैवेद्यके रूपमें उसके लिंगाभिमुख रखने योग्य होने से पहले उसे गुहेश्वर लिंगमें विलीन नहीं होना चाहिए मेरी माँ।
(१९८) शरीरके लिए शरीर रूप होकर तू शरीरका आसरा वना है, तू मनोरूप होकर मनको स्मरण शक्ति देकर उसका आधार वना है, प्राणरूप होकर प्राणाधार बना है तू, मेरे तन, मन, प्राणमें व्याप्त होकर सव साधनोंको अपना साधन बना लिया है तूने । इस कारण मेरे प्राण तुझमें छिपे हैं निजगुरु स्वतन्त्र सिलिंगेश्वरा।
टिप्पणी :- तन मन प्राणादि सव परमात्माके दिए हुए हैं। वह सब उसीको समर्पण करना मुक्तिकी साधना है ।
(१६६) शरीरके तुमसे प्रालिंगित होकर महाशरीर बनने पर फिर कहाँका शरीर ? तुमसे प्रालिंगित होकर मनके महा मन बननेके वाद फ़िर भला कहांका मन ? भावके तुमसे आलिगित होकर निर्भाव होने पर भला फिर कहांके भाव ? इस प्रकार त्रिविध निर्लेप होकर लिंगमें अदृश्य होने पर कुडलचन्नसंगेय अपने आपको जानता है।
(२००) प्राणोंके होने पर भी प्राण नहीं हैं क्योंकि वह लिंगार्पण हो चुके हैं । मनके होने पर भी मन नहीं है वह तो लिंगमें विलीन हो चुका है। जीवके होने पर भी जीव नहीं है वह तो सजीव वना हुआ है। इंद्रियोंके होने पर भी इंद्रियाँ नहीं हैं क्योंकि लिंगेन्द्रियाँ बन चुकी हैं। इस प्रकार सब कुछ होने पर भी कुछ भी नहीं होनेका अनुभव है अर्थात् सौराष्ट्र सोमेश्वरा सत्य शरण भोजन करके भी भूखे हैं, अंग-संगसे भी ब्रह्मचारी हैं।
(२०१) मन ही अपना न रहनेसे न स्मरण कर सकता हूँ न निश्चय ही कर सकता हूँ। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदिका अतिक्रमण करके अभिनव मल्लिकाजुनमें परम सुखी हूँ। ... (२०२). प्रीतमके रूपसे मेरी आँखें भर गयी हैं, उनके शब्दोंसे मेरे कान भर गये हैं, उनकी सुगन्धसे मेरी नाक मर गयी हैं, उनके चुंबनके माधुर्यसे होंठ