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साधना-मार्गः सर्वार्पण
विवेचन-पिछले अध्यायमें कहा गया कि मनुष्यको मुक्तिकी इच्छा होती है, और यह मुक्तिको इच्छा जैसे-जैसे तीव्र होती जाती है वैसे-वैसे वह परमात्माके विषयमें व्याकुल रहने लगता है । उसको विषय सुखकी अोरसे जुगुप्सा होने लगती है । जीवके लिए शिव-वियोग असह्य हो जाता है। वह भगवानको ढूंढने लगता है । उसको पानेकी साधना करने लगता है। अब इस अध्यायमें उस साधनाके विषयमें विचार करना है।
नित्य, निर्दोष सुख प्राप्त करना ही प्राणी मात्रका अंतिम ध्येय है । जीवनका यही एक उद्देश्य है। उसे प्राप्त करनेकी आशा सबमें होती है। किंतु अज्ञान, अथवा मोह, अथवा मायाके कारण यह आशा अथवा ध्येय निष्ठा मंद पड़ती है , और उसी मूलभूत अानंदके छायारूप विषय-सुख में मनुष्य डूब जाता है। बच्चेकी भांति छायाको ही सत्य मानकर उसको पकड़नेका प्रयास करता है, उसीसे डरकर चीखता है। अनुभवसे जव उसकी अस्तित्व हीनताका पता लगता है तव इस विषय-सुखकी सार-हीनताका बोध होने लगता है। मुक्तिकी भूख जगती है । उस आनंदको पानेकी व्याकुलता बढ़ती है, तब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उसे कैसे प्राप्त करें। उसके साधन कौनसे हैं ?
साक्षात्कार अथवा अनुभाव ही मुक्ति सोपानकी अंतिम सीढ़ी है। वचनकारोंने वार-बार इस तथ्यको समझाया है । साक्षात्कारसे मुक्ति करतलामलकवत् हाथमें आ जाती है। प्राध्यात्मिक सत्यके प्रत्यक्ष दर्शनको साक्षात्कार कहते हैं। इसके ज्ञानसे ही मुक्ति मिलती है। अनुभवयुक्त आत्म-ज्ञान ही साक्षात्कार है। काया, वाचा, मन, प्राण, तथा भावमें सत्यात्माका भान होना ही साक्षात्कार है। यही अनुभाव है। किंतु वह साक्षात्कार कैसे होगा?
नदीका प्रवाह और उसमें से अलग किया गया पानीका एक विदु जैसे तत्वतः एक हैं, दोनों पानी ही हैं वैसे ही आत्मा और परमात्मा मूलतः एक ही है। किंतु जीवात्मा परमात्माका अंश मात्र है ! परमात्मा अनंत-गुण, अनंतशक्ति, सच्चिदानंद, नित्य पूर्ण है तो आत्मा अल्पगुण, अल्पशक्ति और अहं. कारके कारण दुःख-भोगी है । जीवात्मामें दिखाई देनेवाले अथवा निर्मित होने वाले सव दोप उपाधिरूप है। यह अहंकार संपूर्णत: नष्ट हो करके "मैं शरीर नहीं हूँ' "मैं यह मन या बुद्धि नहीं हूँ, इन सबसे परे जो आत्मा है वही मैं हूँ"