________________
२१६
वचन-साहित्य परिचय
(१८०) संसार-विषय-रस रूपी कालकूट हलाहल विष खानेवाला कोई वचा है क्या ? फिर भी सब उस संसार-विषय-रसमें पचते हैं । उस विषकी हवा लग जानेसे ही मैं तड़प रहा हूं स्वामी ! अपना कृपा-प्रसाद रूपी निविप देकर मेरी रक्षा करो निजगुरु स्वतंत्रसिद्धलिगेश्वरा । .... .....
(१८१) क्षणिका जीवन स्थिर नहीं है । मृग छायाकी भांति.क्षणभर चमककर छिपनेवाले इस संसारमें क्या देखकर पागल हो रहा है रे तू ! विश्वास न कर इसपर । जिन्होंने इसपर विश्वास किया वह सब बौराकर नष्ट हो गये। केवल महानु भ्रम है यह, मूर्धीका राज है। इसमें कुछ भलाई नहीं हैं ऐसा निश्चित जानकर निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलिंगश्वरके चरण पकड़े हैं ... ..
(१८२) विषयों का नाम भी मेरे सामने लाकर ना खोल बावा ! हरियाली देखकर उस ओर भागने के अलावा पशु दूसरा.क्या जाने ? विषय रहित करके जी भर भक्तिरस पिलाकर सुबुद्धि रूपी अमृत दे मेरी , रक्षा कर कूडल, संगमदेव।
(१८३) अरेरे ! सांपके फनके नीचे वसे मेंढककी सी स्थिति हो गयी है मेरी ! संसार सब वेकार गया न ! सब कुछ करनेवाले कर्ता कूडल संगमदेवा इन सबसे बचाकर मेरी रक्षा करो।
(१८४) जहां कहीं भी जाता हूं यह उपाधि नहीं चूकती, इस उपाधिका उपाय करके निरुपाधिमें स्थित कर मेरे स्वामी ! सब प्रकारकी कामनाओंसे मुक्त करके अपना सत्पथ दिखा । सहज सम्यकत्व देकर रक्षा कर रे ! सौराष्ट्र सोमेश्वरा।
टपिप्णी :-उपरोक्त चार वचनोंमें विषय-बंधनसे मुक्त करो, क्योंकि यह विषकी तरह मारक है ऐसी भगवानसे प्रार्थना है। यही भावना दृढ़ होकर परम सुखकी उत्सुकताको बढ़ाती है।
. . (१८५) कब इस संसारकी प्यास बुझेगी ? कब मेरे मन में उस शक्तिकी प्रतीति होगी? कब ? कब कडल संगमदेव ! और कब, परम संतोषमें, रखोगे. मुझे ?
(१८६) प्राण रहे तब तक क्रोधका मूल है और काया रहे तब तक कामका मूल है; संसारका मोह रहे तब तक कामनायोंका मूल है; कामनाका खंडन करके मोक्षकी मधुरता दिखाते हुए मेरी रक्षा कर कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुना।
(१८७) सुख पाकर हर्ष हुआ कि उसमें से एक नया दुःख निकल आता है, इस दुःखका अन्त नहीं है । संसार में मिलनेवाले सब सुख ऐसेही अल्प हैं, क्षणिक हैं, पुनः महान् दुःख देनेवाले हैं । इनमें से निकलकर तुमसे कभी अलग न