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मुक्ति की इच्छा
२१५ कल्पना आदिसे होनेवाला आनंद अधिक उच्च तो सत्कार्य-जन्य आनंद उससे उच्चकोटिका, अधिक समय तक टिकनेवाला और सूक्ष्म रूपसे जीवनको सुरभित करनेवाला होता है तब वह उससे भी उच्च कोटिके आनंदकी खोज करने लगता है । उसको विषयानंदमें कुछ तथ्य न होनेका अनुभव होने लगता है, उसकी ओर उपेक्षा होने लगती है । वा विषयानंद हेय होनेका भान होने लगता है, वह उसका त्याग करके श्रेष्ठ प्रकारके आनंदकी खोज करने लगता है, मनुष्य धीरे-धीरे उच्चसे उच्चतर और उच्चतम शाश्वत निरालंब निर्दोष आनंद सिंहासनकी ओर अग्रसर होने लगता है। विषय सुखानंदसे कलानंद, कलानंदसे सुंदर कल्पना, विचार आदिका आनंद, कल्पनानंदसे सदाचार, सत्कार्यका आनंद, सदाचारके प्रानंदसे त्यागका आनंद त्यागानंदसे परमात्मासे संयोग प्राप्त करने का योगानंद, और योगानंदसे, परमात्मामें समरस हो जानेका अद्वैतानंद; यह है पानंद सोपान । इसमें समरसैक्य आनंद सबसे श्रेष्ठ है यह कहनेकी कोई
आवश्यकता है नहीं। ____ ऊपर वर्णित आनंद सोपानमें विषयानंद सबसे निचली श्रेणी है और मुक्तिका आनंद जिसे ब्रह्मानंदभी कहते हैं अंतिम सर्वश्रेष्ठ आनंद है। मुक्तिके इस परमानंदकी तीव्र इच्छा मुमुक्षुत्व कहलाती है।
वचन-(१७७) गरीबीकी चिंता है भूख, खाना मिला तो कपड़ेकी चिंता, कपड़े मिले तो रहनेके घरकी चिंता, घर मिलने पर पत्नीकी चिंता, पत्नी आई कि बच्चोंकी चिंता, बच्चे हुए कि उनके जीवनकी चिन्ता, जीवन खराव होनेकी चिंता, और आखिर मृत्युकी चिंता। इस प्रकार चिंता सोपान चढ़ने वालोंको देखा। किंतु शिव-चिंता करनेवाले किसीको मैंने नहीं देखा कहता है वह अंबिगरचौडैया शिवशरण।
(१७८) देहको ही अपना उद्देश्य मानकर मिटजानेवालोंको मैंने देखा, अपने अज्ञानसे नष्ट हो जानेवालोंको मैंने देखा; कामको उद्देश्य मानकर ध्वस्त होने वालों को मैंने देखा किंतु केवल तुझको ही अपना उद्देश्य बना लेनेवालोंको मैंने नहीं देखा गुहेश्वरा।
(१७६) जहां संकटमें फंसते हैं वहां "हे शिवजी !" कहते हैं लोग, तब तुम्हारा स्मरण करते हैं और सिरपर आई बला टलते ही तुम्हारी ओर देखते भी नहीं हैं ये रामनाथ ।
टिप्पणी :- ऊपरके तीन वचनोंमें सामान्य मनुष्य-स्वभावका वर्णन किया गया है।