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मुक्तिकी इच्छा
विवेचन-प्रत्येक मनुष्यमें मुक्ति, अर्थात् शाश्वत सुख, अथवा परमानंदकी इच्छा होना स्वाभाविक है । वह मानवमात्रका मनोधर्म है । मुक्ति प्राप्त करने में मुख्यतः अज्ञान अथवा माया या अविद्याकी रुकावट है। मनुष्यमें मुक्तिकी इच्छा स्वाभाविक है किंतु अज्ञान उस इच्छाको दबाकर उस स्थानमें विषयासवितको प्रबल करता है । उस अज्ञानके रूप अनेक हैं । । उन्हें अहंकार, तृष्णा, कामना, विषयेच्छा, आसक्ति, आदि नामसे पुकारते हैं। जब तक यह सब है तब तक मुक्तिका मिलना असंभव है। मनुष्य बार-बार यह अनुभव करता है कि इस क्षणिक सुखसे परे कोई शाश्वत सुख है। वही सच्चा सुख है। मनुष्य में उस शाश्वत सुखकी जिज्ञासा होना, उसको प्राप्त करनेकी इच्छा होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविक तीन इच्छाको ही मुमुक्षुत्व कहते हैं । मुमुक्षुत्वका अर्थ मोक्षकी तीव्र इच्छा है । जैसे-जैसे मनुष्यकी यह स्वाभाविक इच्छा तीव्र होती जाती है वह मुमुक्षु होता जाता है।
विषय-सुख, अथवा इंद्रिय-जन्य सुखके विषय में तिरस्कार, उपेक्षा अथवा हेय भावना तथा शाश्वत सुखके विषयमें प्रादर और तीन उत्सुकता यह मुमुक्षुत्वके लक्षण माने जाते हैं। ___ मुक्तिको इच्छाका अर्थ मरनेके अनंतर, देहपतनके पश्चात् सुख प्राप्त करनेकी लालसा नहीं है किंतु इसी देहमें अथवा यह शरीर रहते हुए, इसी जन्ममें परमानंद प्राप्त करनेकी इच्छा है। इसको जीवन्मुक्ति कहते हैं । विदेहमक्ति इसका परिणाम है । मुक्ति एक पानंद-सिंहासन है और उस पर चढ़ने के लिये आनंद सोपान है ऐसा माना जाय तो विषयानंद उसकी सबसे निचली सीढ़ी है। विषयानंद परमानंदकी एक छाया है। पहली सीढ़ी पर ही रह कर जैसे सिंहासन पर पहुंचना असंभव है वैसे ही विषयानंदमें ही निमग्न रह कर मुक्तिके परमानंदका अनुभव करना असंभव है । मनुष्य पहलेपहल विषयानंदकी ओर आकर्षित होता है, तत्पश्चात् विषयानंदसे मुक्तिके परमानंदकी ओर ! जब मनुष्यको विषयानंदके छायारूपका अनुभव आने लगता है। उसकी क्षणिकताका ज्ञान. और भान होने लगता है तब वह उच्च प्रकारके शाश्वत सुखको प्राप्त करनेका प्रयास करने लगता है। और यह स्वाभाविक भी है । जब मनुष्य यह अनुभव करने लगता है कि विषय-सुखसे संगीत आदि कला द्वारा, प्राप्त होनेवाला आनंद सूक्ष्म और उच्च है, उससे भी संदर