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वचन-साहित्य-परिचय विषय नामका विप चढ़ा, और सब अचेत होकर पड़े हैं। सबको काटकर पुनः उनको ही कसकर उन्हीसे खेलनेवाले इस सांपका मुंह कैसे बांधा जा सकता है यह न जाननेसे सब उसीमें मरते हैं न निजगुरु स्वतंत्रसिद्धलिंगेश्वरका स्मरण न कर।
विवेचन-संसारमें पंचेंद्रिय द्वारा सुख होगा ही नहीं ऐसा कोई नहीं कहता. । वचनकारभी ऐसा नहीं कहते, किंतु वे कहते हैं पंचेद्रियों द्वारा अनुभव
आनेवाला सुख क्षणिक है, उसमें दुःखके बीज हैं, और वह शाश्वत सुखके विरोधी हैं । इसीलिये वे कहते हैं इस क्षणिक सुखके भुलावे में ना लायो । वह सुख क्षणिक है, दुःख मिश्रित है, परावलंबी और परतंत्र है. । तुम शाश्वत सुखके अधिकारी हो, उसके लिये प्रयास करो।
वचन-(१७२) संसार में सुख नहीं है, संसार सुखमय नहीं है, "इह" में और 'पर" में भी सुख नहीं है ; क्योंकि वह स्थिर नहीं है । ग्रह-पाश, क्षेत्र-भ्रम, पुन:-पुनः आते है । वह विचार छोड़ दो वावा! छोड़ दो !! पैदा होकर मर जानेवालोंको देखकर भी क्यों पड़ता है इस संसार पाशमें ? अरे बाबा! तेरी यह देह स्थिर नहीं है, वह नाशवान है, तू कहाँसे आया यह जानकर वहीं जानेका प्रयास कर, वही रास्ता पकड़, वह रास्ता स्वतंत्र सिलिगेश्वर में विलीन हो जाना है।
(१७३) कहां संसारका सुख और कहां वह निजैक्य सुख ? कहां घोर अंधकार और कहां प्रकाश ? मेरे अंतरंगमें कभी दीखता है और कभी छिपता है ; यह कैसा जादू है ? मृदु मधुर खीर खा लेनेके बाद भला नीम पीना किसको अच्छा लगेगा ? अपने प्रात्म-सुखकी मिठास घोल देनेके अनंतर संसार सुख खिलाना चाहो तो कैसा होगा ? मेरे साथ ऐसा खेल क्यों खेला जा रहा है रे ? मुझे नहीं चाहिये, नहीं चाहिये यह सब । तू मुझे जानकर, मेरा पालन कर, तुझे मेरी सौगंध है. निजगुरु स्वतंत्र सिद्धेश्वरा।
(१७४) रोगीको भी कभी : दूध मधुर लगता है क्या ? उल्लूको कभी धूप अच्छी लगती है क्या ? चोरोंको भी. कभी चांदनी अच्छी लगती है ? भव सागरमें समरस हुए लोग भला निर्भावका भाव कैसे समझेंगे चियकैयप्रियसिलिगय ? नहीं; नहीं समझेंगे।
.. ( ७५) विश्वसा विशाल माया जाल पकड़कर कालरूपी जालक जाल फैलर रहा है देख, उस जालसे वचनेवाला एक भी प्राणी मैंने नहीं देखा, मैं-मैं कहने वाले कई लोगोंको, ज्ञानी-विज्ञानी तत्वज्ञानियोंको उसने अपने जालके फंदेमें जकड़ा; कालके जाल में प्रावद्ध होकर, उसके फंदे में वेष्टित होकर सारा संसार सिसक रहा है निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलिगेश्वर अपनोंकी . रक्षा करता है उस जालसे। '