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साक्षात्कार
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'पुण्य मेरी आंखोंके सामने पाकर घर कर गया है, नित्यका प्रकाश है; मेरे व्यानकी बहार है निष्कलंकमल्लिकार्जुना तेरे शरणोंके श्री-चरणोंमें शतशत प्रणाम करता रहा हूं।
(११०) पत्थरमें क्या प्राग जल सकती है ? बीजमें कभी वृक्ष बोल सकता है ? जो नहीं देखा है वह कैसे बांटा जा सकता है गुहेश्वरा तुम्हारा ठाव अनु'भव-सुखी ही जान सकता है ।
(१११) अनुभावसे लिंग पैदा हुआ था, उसी अनुभावसे पैदा हुआ था जंगम, उसी अनुभावसे प्रसाद पैदा हुआ था, जिस शरीरमें वह अनुभाव है वह सदैव सुखी है गुहेश्वरा। .
टिप्पणी :-~-अनुभाव-सत्यका प्रत्यक्ष ज्ञान, साक्षात्कार-जंगम-शैव संन्यासी प्रसाद ईश्वरको समर्पित वस्तु ।
(११२) मनके नोकके छोरके उस पार स्मरण किये हुए स्मरणका रंगरूप रहित चिन्ह देखकर पगला गया मां ! अन्तःकरणके अन्तरालमें प्रतिक्षण निजंक्य गुहेश्वरमें विलीन हो आनंदसे नाच उठा।
(११३) मैं एक कहता हूं तो आप दूसरा ही कहते हैं, आप एक कहते हैं तो मैं दूसरा ही कहता हूं; क्यों कि मेरी और आपकी पटरी नहीं बैठती, जब पटरी ही नहीं बैठती तब अनुभावकी बात क्या होगी ? और अनुभावकी बात न करनेवाले गुहेश्वर यहीं नहीं है रे चन्नवसव ।
(११४) वृक्षोंपर रहा तो क्या और भिक्षासे संतुष्ट रहा तो क्या ? पहने हुए कपड़े उतारकर दिगंवर हुआ तो क्या और काल-रहित हुआ तो क्या ? वैसे ही कर्म-रहित होकर निवृत्त हुआ तो क्या ? कूडलचन्नके अनुभाव-रहित मनुष्य कितना ही काल जिया तो क्या और कुछ भी किया तो क्या सब व्यर्थ है।
(११५) अरे ! अनुभाव अनुभाव कहते हो, अनुभाव तो भूमिके अंदर छिपी संपत्तिकी तरह है रे ! अनुभाव तो बच्चोंका देखा स्वप्नसा है। अनुभाव क्या कोई कल्पना-तरंग है ? · अनुभाव क्या बाजारका मसला है ? अनुभाव रास्तेपर पड़ा हुप्रा कूड़ा है क्या? अरे ! क्या है ? कहो न भाई ! हाथी तुम्हारी झोंपड़ीके छज्जपर आनेवाला है ? जहां बैठे वहां गोष्ठी, जहां गए वहां प्रवचन और दीक्षा-दान, जहां खड़े रहे वहां सत्संग और अनुभाव, ऐसे इन कुत्ते और सूअरोंको क्या कहूं मैं नाडलसंगम देव ।
(११६) अनुभावकी बातें करनेवाले भाइयो ! कहां वह अनुभाव और कहां तुम, हटो मेरे भाइयो ! अनुभाव तो अात्म-विद्या है, मैं क्या हूं यह दिखाने वाली वस्तु है, अनुभाव अपने अंतःकरणमें होता है, अनुभावको न जानकर शास्त्रमें रटे हुए शब्द जालोंको फैलाकर जो नहीं देखा है उसका लेन-देन करने