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साक्षात्कारीको स्थिति विवेचन-पिछले अध्यायमें कहा गया कि सज्जनोंकी निर्मल मनोभूमिमें, सत्य-ग्राहक विशुद्ध अंतःकरणमें आत्यंतिक सत्यका प्रत्यक्ष अनुभव होता है । इस अध्यायमें हम देखेंगे कि ऐसे अनुभव प्राप्त अनुभावियोंकी स्थिति कैसी रहती है । साक्षात्कार किये हुए अनुभावी कैसे होते हैं। सत्य-प्रकाश रूप होता है, अवर्णनीय होता है, अानंददायक होता है। सत्यका साक्षात्कार होनेसे साक्षात्कारीका अथवा अनुभावीका अहंकार मिट जाता है। उसका "मैं एक व्यक्ति हूँ" यह भाव नष्ट हो जाता है, "मैं, विश्वात्माका ही एक अंश हूं" यह • भाव जागृत होता है। उसके सव संशय नष्ट हो जाते हैं। वह स्थिरमति होता है, अपनेको परमात्मा का यंत्र मानकर, अथवा किसी कामका निमित्तमात्र बनकर, देवी स्फूतिसे, परमात्माका संकल्प जानकर कर्म करता है। प्रत्येक मनुष्यका प्राप्तव्य यही है। यही मानवी जीवनकी सर्वोच्च स्थिति है। स्थिर और चिर साक्षात्कार मुक्तिका लक्षण है । उसी स्थितिमें मनुष्यको शाश्वत सुख प्राप्त होता है। तभी साक्षात्कारीको अपने जीवन में परमात्माके अनन्त विभुत्व, अनंत गुणत्व तथा अनंत शक्तित्व की प्रतीति होती है अथवा अनुभावी प्रत्येक क्षणमें उसी में लीन रहता है । तब वह सच्चिदानंद, नित्य परिपूर्ण परमात्माकी प्रेरणासे बरतता है । जब किसी व्यक्तिका अहंभाव पूर्णरूपसे नष्ट हो जाता है, तब वह द्वंद्वातीत अथवा त्रिगुणातीत अवस्थाका अनुभव करता है ।
अत्यंत कोमल दुध-मुंहा बच्चा अथवा नदी, नाले, गरजनेवाले बादल, चमकनेवाली विद्युत् वहनेवाली हवा आदि प्राकृतिक शक्तियां जिस सहजभावसे बरतती हैं, अथवा स्फुरण प्राप्त कवि जैसे निरंहकार होकर, लीलाभावसे काव्य लिखता है; वैसे ही, साक्षात्कारी अपनेको परमात्माका यंत्र और परमात्माको यंत्रचालक मानकर बरतता है। ऐसे ही अनुभावीको सिद्ध कहते हैं । वही साक्षात्कारी, अनुभावी, सिद्ध, मुक्त, अथवा सत्यसे समरस प्राप्त, निजैक्य कहलाता है। ___ वह बाह्य इंद्रियोंसे कोई काम क्यों न करें उसका अंतरंग परमात्मामें लीन रहता है । इसलिए उसका जीवन यज्ञमय-सा रहता है अर्थात् वह जो बोलता है, सुनता है, खाता है, करता है, वह सब परमात्माकी ही प्रेरणासे । उसीकी प्रेरणासे उसका जीवन चलता है। वाह्य सुख-दुःखसे उसका अंत:करण अलिप्त रहता है । पाप-पुण्य उसके पास नहीं पाते ।