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अब हम देखें वचनकारोंने इसके विषय में अपने वचनों में क्या कहा है। उन्होंने कहा है यह अज्ञान माया, मोहरूप होता है।
वचन-(१५४) पानी जमकर जैसे हिम बन जाता है वैसे शून्य ही स्वयंभूहुधा । उस स्वयंभू लिंगसे मूर्ति बनी, उस मूतिसे विश्वकी उत्पत्ति हुई, उसी विश्वोत्पत्तिसे संसार बना, उस संसारसे अज्ञान पैदा हुआ; वह अज्ञान रूपी महामाया,विश्वके आवरणमें मैं "जानता हूँ मैंने जाना" कहने वाले अर्धज्ञानी मूोंको अंधकारमें लपेटकर कामनाओंके जाल में फंसाते हुए निगल रही है गुहेश्वरा।
टिप्पणी :-शून्य=किसी भी इंद्रियको गोचर न होनेवाली निर्गुण वस्तु, उपनिषझै अथवा ऋग्वेदके नासदीय सूक्तमें कहा हुआ "ऋत" :: (१५५) सूखे पत्ते चबाकर तपश्चर्या करनेसे भी नहीं छूटती है वह माया। हवा खांकर गुफा में जा बैठने पर भी पीछा नहीं छोड़ती है वह माया । शरीर का व्यापार मनमें लाकर व्याकुल कर देती है वह माया । ऐसी ही अनेक प्रकारसे हिंसा करके मारती है वह माया। इस प्रकार सारा जगत इसके पाशमें तड़प रहा है निजगुरु स्वतन्त्र सिद्धलिंगेश्वरा अपनेसे अभिन्नोंको इस माया-जाल में से बचाकर ले जाना ही तेरा धर्म है । .: (१५६) मैं एक सोचता हूँ तो वह दूसरा ही सोचती है, मैं इस ओर खोंचता हूं तो वह उस ओर खींचती है। उसने मुझे मुग्ध करके सताया था, दग्ध करके सताया था । कूडलसंगमदेवसे मिलतें समय तो मुझसे आगे जाकर दोनोंके वीचमें खड़ी रहती थी वह माया। - (१५७) वेद-वेदान्त और शास्त्र-सिद्धान्त कहीं जाकर देखनेपर सर्वत्र यही एक भेद है । जाना तो दोषसे बाहर, मलसे बाहर, भूला तो उसके अन्दर और जहां ज्ञान अज्ञान, स्मरण विस्मरण दोनों मिटा कि सदाशिवमूर्ति लिंगका प्रकाश हुआ।
विवेचन-विश्वोत्पत्ति के साथ मायाकी भी उत्पत्ति हुई। वह सबको संताती है । केवल जप-तप करनेसे वह नहीं छोड़ती। मनुष्यकी इच्छाके विरुद्ध पापमें उतारकर उसको गिराती है। उसके मुक्ति मार्ग में रुकावट होकर खड़ी रहती है। साक्षात्कारके मार्गमें कांटे बिछाती है। वह विस्मरण श्रादिके रूप में आकर सताती है, ऐसा प्रकट करनेके वाद उसका अहंकार-रूप दर्शाया है। कहा है अहकार भी अज्ञानका रूप है।
वचन--(१५८) मैं तू रूपी अहंकार आया कि कपट-कला और कुटिल कुतंत्रकी हवा चली और उस तीन हवा में ज्ञान-ज्योति दुझी। यह ज्ञान-ज्योति मते ही "मैं जानता हूं अथवा मैंने जाना है" कहनेवाले सब अर्धज्ञानी तमनां.