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वचन-साहित्य-परिचय वाले मेरे भाइयो ! कहां तुम और कहां स्वतंत्र सिलिगेश्वरका अनुभाव ।' हटो भाई हटो यहांसे !
विवेचन--ऊपरके वचनोंमें अनुभाव अर्थात् साक्षात्कारके अलग-अलग पहलुगोंका सुन्दर विवेचन किया है। उसकी व्याख्याकी है जैसे----"अनुभावका अर्थ आत्म-विद्या 'मैं क्या हूं" यह दिखानेका प्रयत्न-प्रादि । जप-तप, पूजा, नमस्कार आदिसे अनुभाव श्रेष्ठ है । वही भक्तिका आधार है । ज्ञानका आश्रय है। सबका मूल है। क्योंकि विना साक्षात्कारके यह सव व्यर्थ है। अनुभावी लोग उस विषयमें परस्पर चर्चा करके आनंदित हो सकते हैं। किंतु जहां गए वहां उसकी चर्चा करना व्यर्थ है । ऐसा नहीं करना चाहिए । साक्षात्कार प्रकाश रूप है । वह अपने अन्तःकरणका प्रकाश है, संचित पुण्य-फलका प्रतीक है, वह अपनी अंतर्ज्योति है । शब्दोंमें उसका वर्णन करना असंभव है आदि सब बातें ऊपरके वचनोंमें स्पष्ट कही हैं ।