________________
साक्षात्कारीकी स्थिति
२०५
यहां "मरिणमाड" का अर्थ सहस्रदल कमल अथवा सातवां अंतस्थ ऐसा कह सकते हैं । यह वचन शास्त्र में श्रानेवाला वचनकारोंका अपना परिभाषिक शद्ध होनेसे वही रखा है।
विवेचन-साक्षात्कारीकी स्थिति जीवन-मुक्तकी स्थिति है । वह कोई स्थान अथवा जगह नहीं है। कोई लोक भी नहीं। वह चित्तकी स्थिर रूपसे रहनेवाली एक स्थिति है । उस स्थितिमें मनुष्य सदैव अनासक्त, निलिप्त, अलिप्त रहता है, सतत कर्म करनेपर भी उसको कर्मका दोष नहीं चिपकता । क्योंकि वह भगवत्प्रेरणासे सब काम करता रहता है।
वचन-(१४६) सांपके दाँत तोड़कर उससे खेलना पाए तो सांपका साथ बड़ा अच्छा है । शरीरके संगका विवेचन कर सके तो शरीरका संग भी अच्छा है। मां जैसी राक्षसी भी बनती है वैसे शरीरके विकार विनाशकारी बनते हैं। चन्नमल्लिकार्जुनय्याने जिसे आलिंगन दिया है उसको सशरीरी नहीं कहो।
टिप्पणी :-शरीरके तथा उसकी इंद्रियोंके तंत्रसे,उनके आधीन होकर चला तो मनुष्यका सर्वनाश निश्चित है, उसीमें अविकारी रहे तो मनुष्य मुक्त होता है । शरीर खराव नहीं किंतु उसके विकारोंके आधीन होना खराब है। ।
(१४७) पानीमें डूबा हुआ मत्स्य जैसे पानीको अपनी नाकमें नहीं जाने देता वैसाही शिवशरण संसारमें रहकर भी उससे अलिप्त रहता है। अपने शरणोंको यह बुद्धि और मत्स्यको वह बुद्धि तूने ही दी है न मेरे कपिल सिद्ध मल्लिनाथैया।
(१४८) कुंडलिग कीटककी भांति शरीरमें मिट्टी न लगने देते हुए रहा है तू बसवण्ण ! जलमें डूबे कमल पत्रकी तरह डूबकर भी निर्लिप्त रहा है तू बसवण्ण ! जलसे बना हुआ मोती जैसे पुनः जल नहीं बनता वैसा रहा है तू वसवण्ण । गुहेश्वर लिंगकी आज्ञासे अंगगुणोंमें मस्त ऐश्वर्याधकारमें रहनेवालोंके मतको क्या कर सकते हैं संग वसवण्ण ?
टिप्पणी :- कुंडलिगकोटक=एक कीड़ा जो सदैव मिट्टी में रहता है किंतु उसके बदनको मिट्टी नहीं लगती।
(१४६) अांखोंसे देखना चाहूं तो रूप नहीं, हाथसे पकड़ना चाहूं तो शरीर नहीं. चलाना चाहूं तो गतिमान नहीं, बोलनेके लिए वाचाल नहीं, निंदा करू तो पी भी नहीं, प्रशंसा करने वालोंका स्नेही भी नहीं; गुहेश्वरकी स्थिति शब्दोंकी मालामें गंथी जा सकती है क्या हे सिद्ध रामैया ! तू ऐसा कैसे बना ?
(१५०) शरण न इह (लोकका) है न पर (लोकका) न अपना है न