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वचन साहित्य-परिचय
मुक्त और साक्षात्कारीका क्या संबंध है ? यह भी एक प्रश्न प्राता है। यदि हम साक्षात्कारको फूल समझे तो मुक्तिको फल समझ सकते हैं । साक्षात्कार मुक्तिकी पहली सीढ़ी है । मुक्ति साक्षात्कारका परिणाम है। साक्षात्कारी परमात्मामें सदैव लीन रहता है अर्थात् उसमें समरस रहता है । अब देखें इस विषयमें वचनकारोंने क्या कहा है।
वचन-(११७) "तू" और "मैं" यह उभयासक्ति मिट जाने पर, सब .. आप ही आप होनेके अनंतर, त्रिकूट नामक महा पर्वतके अंतिम शिखर पर चढ़कर देखा जाय तो विशाल आकाश देखा जा सकता है। उस महाकाशमें विलीन हो जानेके लिये, पहले इस त्रिकूटमें एक कदली वृक्ष है, उस कदली वृक्षके गाभेके अंतरतममें घुसकर देखनेसे, चमककर प्रकाशनेवाली एक ज्योति दीखने लगेगी। . वहां चल मेरी मां ! गुहेश्वर लिंगमें तुझे परमपद अपने श्राप मिलेगा देख ।
टिप्पणी :-अल्लम प्रभुने अक्क महादेवीको यह वचन कहा था । "आकाश" इस अर्थमें मूलमें “वयलु" शब्द है। बयलुका अर्थ है आकाश, शून्य । गाभा=गर्भ, अंतरतम भाग ।
(११८) सुनो रे सुनो सब लोग ! उदर रहित, वाचा रहित, विना ओरछोरके प्रीतमसे मिलकर आनंदोन्मत्त बनी हूं मैं ! यह भाषा व्यर्थ नहीं है । अन्यका चिन्तन नहीं करूंगी और अन्य सुखकी आशा भी नहीं करूंगी। पहले छह था तीन हुआ, तीनका दो और दोका एक होकर खड़ी हूं मैं। बसवण्ण आदि शरणोंकी शरणार्थी हूं। शून्यसे कृतकृत्य हुई हूं। मुझे यह नहीं भूलना चाहिए कि मैं तुम्हारी शिशु हूं, इसलिये "तू चन्न मल्लिकार्जुनसे मिलकर समरस हो जा!" ऐसा आशीर्वाद दो।
टिप्पणी :-पहले छह का तीन हुआ, पहले छह अंगस्थल थे, वह तीन हुए, त्यागांग, भोगांग, योगांग, अनंतर लिंग और अंग ये दो रहे और अंतमें लिंगांग समरसैक्य हुअा। लिंग और अंगके विषयमें इसी पुस्तकके "परिचय" खंडका "सांप्रदायिक" अध्याय तथा "वचनामृत" खंडका अठारहवां अध्याय देखनेकी कृपा करें।
(११६) स्फटिक घटमें जलनेवाली ज्योति जैसे अंतर-वाह्य एक रूपसे जलती है वैसे मेरा अंतर-बाह्य एक ही एक है ऐसा आद्यंत दीख रहा है। पर शिवत्त्वही शरण है देख, दूसरा स्वरूप नहीं है रे महालिंग गुरू सिद्धेश्वरप्रभु।
(१२०) दिना स्थलका चलना, निःसीम बोलना और संभाषण सुख, वैसा ही अनंत विश्वास, स्वानुभव सुख, असीम महिमा और नित्य नूतन अनंत विचार फूडल संगमदेव तेरे शरणोंको ही प्राप्त है।