________________
वचन - साहित्य- परिचय
टिप्पणी: - इस वचनका यह श्रयं माना जाता है कि रूप रहित परमात्मतत्त्वको तेजो रूपसे प्रतीत करना होता है |
१७४
(३१) हे त्रिनेत्र ! तुम वैसे ही सबमें बसे हो जैसे मणियों को पिरोनेवाला घागा रहता है; वैसे देखा तो तनसे भिन्न श्रात्मामात्र है । ऋणु-रेणु में गुरग भरनेवाला तू ही है यह जानकर में नतमस्तक होता है रामनाथ ।
(३२) शिवने अपने मनोरंजनके लिये इस अनंत विश्वका निर्माण किया । निर्माण करके वह इस विश्वके बाहर होगा क्या ? नहीं, वह स्वयं विश्वमय हो हो गया। तो क्या वह विश्व-मय होनेसे विश्वको उत्पत्ति, स्थिति, लयके श्राधीन हुआ होगा ? नहीं, क्योंकि प्रजात की उत्पत्ति कैसी ? जो कर्म रहित है वह कर्म - जाल में कैसे फंसेगा ? और अविनाशीका लय कैसे होगा ? इस प्रकार यह गुणत्रय उसको नहीं व्यापते । इससे वह निलॅप है। बिना उसके विश्वका दूसरा श्राधार नहीं है इसलिये विश्वाधार विश्वसे दूर नहीं है । प्रपने में अपने सिवा दूसरों को दिखाना असंभव होनेसे खोके सामने नहीं श्राया । गोचर न हो करके स्वयं विश्वमय हुग्रा यही सत्य है । अपने मनोरंजनके लिये राजा प्यादा हो सकता है और पुनः राजा भी हो सकता है । हमारा उरिलिगपेद्दिश्य विश्वेश्वर विश्व होना भी जानता है और विश्व न होना भी ।