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सृष्टि
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विश्वातीत भी है । वह अव्यक्त रूपसे सर्वत्र विराजमान है । वह केवल चैतन्य रूप है । वह सचराचर वस्तुमात्रका कारण रूप है फिर भी सबसे अलिप्त है ।
गम्य है । इसलिये वह सब कुछ करके भी न करने वालेका-सा रहता है ।" वह निरंहकारी, निरपेक्ष, निर्लिप्त है इसलिये सबमें व्याप्त रहकर भी सबसे तीत भी है।
वचन-- (२४) जहाँ कहीं देखता हूं तू ही तू है प्रभो ! इस सारे विस्तारका रूप तू ही है । तू ही विश्वतोचक्षु है, तू ही विश्वतोमुख है, तू ही विश्वतोवा है, तू ही विश्वतोपाद है कूडल संगम देव ।
(२५) यह पृथ्वी तुम्हारा दिया हुआ दान है, इसमें से उत्पन्न होनेवाला धन-धान्यादि तुम्हारा दिया हुआ दान है, सर्वत्र संय- संय करके चलनेवाली हवा तुम्हारा दिया हुया दान है, तुम्हारे दिये गये दान पर जीकर प्रोरोंका यशोगान करनेवाले कुत्तों को मैं क्या कहूँ रामनाथ ?
(२६) इस तरह बसी हुई इस भूमि, फैले हुए आकाश, कल्लोल करते -- वाले सप्त सागर आदि में सर्वत्र समाये हुए अचित्यको कौन जानता है भला रामनाथ ?
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(२७) से भी अणु, महानसे भी महान, अनगिनत असंख्येय, ब्रह्म-की समानता भला कौन करेगा ? अगणित, अक्षय, सर्व - जीवमनः प्रेरक सर्वज्ञ, एको देव, सर्व-संवित्प्रकाश परमेश्वरको मन रूपी दर्पण में, विद्वाकाश रूप हो-कर प्रकाशनेवाले शिवको देखकर उसमें विलीन होनेवाला ही शिवयोगी है |वह जनन-मरण-रहित है । वही सर्वज्ञ है | अधिक क्या कहूँ वह स्वयं निजगुरु सिद्ध लिंगेश्वर है ।
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टिप्पणीः -- संवित्प्रकाश = ज्ञानका प्रकाश, चैतन्यका प्रकाश, विद्वाकाश = विदुरूप सूक्ष्म प्रकाश, निर्मल आकाश |
( २८ ) किरणों में छिपी धूपकी तरह होगा तुम्हारा निवास, दूधमें छिपे घीकी तरह, चित्रकारके हृदयमें छिपे चित्रकी तरह, शब्दमें समाये अर्थ की तरह, प्रांखोंमें चमकनेवाले तेजकी तरह होगा चन्न संगैया ।
(२) तुम्हारा ठोर भूमिमें छिपी संपत्ति, ग्रास्मान में छिपी विद्युत्, शून्य में छिपे किरण और ग्राँखों में बसे प्रकाश-सा है गुहेश्वर ।
(३०) फूल में न समानेसे छलककर बाहर पड़ी सुगंधको लेकर सर-सर सरकनेवाले समीरकी तरह, अमृतके रसास्वादको जिव्हाकी नोकसे जाननेवाले मानव के चैतन्यकी तरह, स्थानविहीन रूप- शिखा के तेज में चमकनेकी तरह
रामनाथ ।