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सृष्टिका रचना - क्रम
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विवेचन - सत् नामकी निरवय, द्वंद्वातीत वस्तुसे उसके प्रवेद्य-स्वभावानुसार सृष्टिकी रचना हुई अथवा चिन्मय रूप परमात्माने अपने संकल्पसे सृष्टिकी रचना की । दोनोंका अर्थ एक ही है। बाहरसे देखनेवाले को उत्ताल समुद्रका रूप सामान्यतया विकृत-सा दीखता है किन्तु समुद्रकी अपनी दृष्टिसे वह विकृत नहीं होता । क्योंकि समुद्र की सतह पर तरंगों का कितना ही तांडव क्यों न हो, पर्वताकार तरंगें क्यों न उठें, समुद्र तत्त्वतः समुद्र ही रहता है । भले ही देखने में उसका रूप और कुछ दीखता हो ! अनादि सत्य-तत्त्व अथवा परमात्म-तत्त्व, इस सृष्टि के आविर्भाव के कारण हमारी ग्रल्प, संकुचित दृष्टिको विकृत-सा दीखता है किंतु वह मूलतः तनिक भी विकृत नहीं होता । इसीलिये परमात्म-तत्त्वसे, जो एकजीव, एकरूप है विविधतापूर्ण विश्वकी उत्पत्ति होनेपर भी, तथा वह परमात्म-तत्त्व इस विविधतापूर्ण विश्व में सर्वव्यापी होकर भी निर्लेप है ऐसा वचनकारोंने वर्णन किया है ।
शिव के विनोदार्थ इस विविधतापूर्ण विश्वकी उत्पत्ति हुई, अथवा अनेक रूप सृष्टिका सृजन हुआ । इसी क्रमसे उसका वर्णन इस अध्याय में किया गया है ।
वचन—(३३) सबसे पहले ग्रखंडाद्वय, अनुपम, निरवय, सर्वशून्य, सच्चिदानंद, नित्यपरिपूर्ण, श्रखंड लिंगको, विना ध्यान पूजा के शून्य में नहीं रहना चाहिये इस विचारसे उसने अपने स्वेच्छा -विलासके स्मररण - संकल्प से, अपनी चित्प्रभाशक्तिके सामर्थ्यको प्रदीप्तकर, अनन्त कोटि ब्रह्मांड तथा अनंतकोटि ग्रात्मायोंको अपने में ही निर्मितकर लिया; उन ग्रात्मानोंको पच्चीस तत्त्वों से वेष्टित करनेसे वह ग्रात्माएँ देह - भान प्राप्त करके, जाति, वर्ण, श्राश्रम, कुलगोत्र, नाम-रूपादि सीमा में, सुख दुःख, बंध-मोक्षके जाल में अपने ग्रात्मस्वरूपको भूल जाती हैं; इन ग्रात्माग्रोंको काल - कामादिके वशवर्ती करके, स्वयं उनके सुख-दु:ख, वंधन - मोक्ष से निर्लिप्त यंत्र चालकके रूपमें रहकर ही वह शिवलिंग सब खेल खेलता है ।
टिप्पणीः - निरवय = प्रखंड, निरंजन = शुद्ध, निष्पाप; लिंग = परमात्मप्रतीक, कोटि = करोड़, अनंत कोटि आत्मायोंको = अनेकानेक जीवों को, पच्चीसतत्त्व = सांख्य के पच्चीसतत्त्व, पुरुष, प्रकृति, महत् ग्रहंकार और मन, पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच कर्मेद्रिय, पाँच तन्मात्राएं, और पंच महाभूत, देहभान = 'यह शरीर ही मैं हूँ' ऐसी धारणा ।