________________
१८४
वचन साहित्य-परिचय
पड़े हुए उसके अंशका अंतमें उसीमें समा जाना अनिवार्य है। वचनकारोंने यही कहा है।
वचन--(४८) आकाशमें दिखाई देनेवाले इंद्र-धनुषको छिपनेके लिए सिवा आकाशके दूसरा कौन-सा स्थान हो सकता है ? हवामें से खिलनेवाली अांधीका हवाके सिवा और किसी में समा सकना संभव है क्या रे ? अागमेंसे प्रस्फुटित होनेवाले स्फुलिंग सिवा प्रागके और किसमें समा सकेंगे भला ? आदिअनादिसे भी परे उस पर-वस्तुमेंसे उदित और रूपित होकर दीखनेवाले निजैक्यको, विलीन होनेके लिये उस पर-वस्तुके अलावा और कौनसा श्राश्रय मिल सकता है अखंडेश्वरा ?
टिप्पणी:-पर-वस्तुसे उदित रूपित, निजैक्य जीवात्मा । वस्तुतः वह निजैक्य है किंतु जीवरूपसे विश्वमें दिखाई देता है । उसे छिपनेके लिये जहांसे प्राया वहीं जाना होगा । उसको विना परमात्माके दूसरा आश्रय स्थान नहीं है।
(४६) सोनेके अनंत आभूषण पिघलानेसे जैसे सोना ही बनेगा, पानीसे बना हुआ हिम पिघलनेसे जैसे पानी ही बनेगा, चिन्मय वस्तुसे उदित होकर चित्-स्वरूप बना शरण उस चिन्मय वस्तुमें ही विलीन होकर परम शिवयोगी वना रे महालिंग गुरु सिद्धेश्वर प्रभु ।
टिप्पणी:-शरण-आत्मा । आत्मगत वचन है।
(५०) शून्य द्वारा शून्य वोया जाकर शून्यके ही फलनेकी तरह, शून्य शून्य रूप में बढ़कर सर्वत्र शून्य बना । शून्य ही जीवन है, शून्यही भावना है, अंतिम रूपसे शून्य शून्यमें मिल गया है गुहेश्वरा ।
टिप्पणी:-सव शून्य ही है का अनुभव होनेपर जीव स्वयं शून्य हो जाता है यह इस वचन में कहा है।
(५१) अमर्यादित अनंतमें भापाको जहाँ कोई अोर-छोर ही नहीं मिलता वहाँ भला भावोंको शब्दोंमें डुबोने की आवश्यकता ही क्या है गुहेश्वरा ।
टिप्पणी:--इस वचनका ऐसा अर्थ किया जाता है कि जो अमर्याद अनंतमें तन्मय हुआ है वह भाव और भाषाके भी परे है।
(५२) अाग लगनेपर कपूरके पर्वतका कोयला बनेगा क्या ? हिमके . शिवालयपर क्या धूपका शिखर रखा जा सकता है ? गुहेश्वर लिंग जाननेपर पुनः स्मरण कैसे ?
टिप्पणी:-लिंग-परमतत्वका बोधचिन्ह । मुक्तस्थितिमें स्मरण भी असंभव है। सव एक होनेपर भला कौन किसका स्मरण करेगा ? साधक और साध्यकी अद्वैतावस्था दर्शाई है।
(५३) वंश दिशा, पृथ्वी, आकाश, ऐसा कुछ भी नहीं जानता मैं । मैं