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मुक्ति ही मानव जीवन का उद्देश्य है
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पुण्यका क्षय होने के बाद समाप्त होता है इसलिये इसे शाश्वतसुख अथवा अक्षय सुख नहीं कहा जा सकता । तव भला उसे मनुष्यका आत्यंतिक ध्येय कैसे कहा जा सकता है ?
(६५) अन्नदान, सत्यवचन, पानीयदान अादि सत्कार्य करके मरनेसे . स्वर्ग मिल सकता है शिवैक्य नहीं हो सकता । जिन्होंने गुहेश्वरको जान लिया है उन शरणोंको इन सब बातोंका कोई स्वारस्य नहीं है ।
(६६) जलाशय, मंदिर, शिवालय, धर्मशाला, यह सब पिछले कीचड़के कदम हैं, कर्मकांड और योग यह सब पुनः संसारमें लानेके साधन हैं। अगले
और पिछले सारे सम्बन्ध तोड़कर गुहेश्वर लिंगमें विलीन हो जाना चाहिये सिद्धरामय्या।
टिप्पणी:-प्रोडुरामय्याने अनेक जलाशय, मंदिर आदि बनवाकर अनंत पुण्य प्राप्त करनेका प्रयास किया था। ऊपर के वचनसे अल्लम प्रभुने उनको ज्ञानबोध कराया और इसके बाद वह सिद्धरामय्य कहलाया ऐसी जनश्रुति है।
(६७) मैं कायसमाधि नहीं चाहता, न जीवको स्मरण-समाधि, न कैलास नामका संसार ही चाहता हूँ न पुण्य-पाप नामका कर्म । तू मुझे यहाँ-वहाँ न खींचकर केवल अपने में ही स्थिर करले निष्कलंक मल्लिकार्जुना ।
(१८) इस सत्कार्य का यह फल है, इस फूलका वह फल है यह सब जीविका कमानेकी बातें हैं बावा ! यह सब पाप-पुण्य खानेवाले कार्मिक हैं। स्वर्ग और नरक खानेवाले खाऊ हैं । जीवन, वस्तु, प्राप्त-संपत्ति सब कुछ परमात्माके चरणोंमें अर्पण करनेवाला शिव-पुत्र है, अन्य सब जगन्मित्र मृडदेवसोड्ड्ल ।
टिप्पणी:- जगन्मिय, संसारको अपना मानकर संसारके पाशमें बद्ध।