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साक्षात्कार
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विवेचन-पिछले अध्याय में मुक्तिका वर्णन किया गया है । इस अध्यायमें वह मुक्ति अथवा मुक्तिका आनंद, अथवा शाश्वत सुख जिन साधनोंसे मिल सकता है उसका वर्णन करेंगे। ___मनुष्यका जीवन सामान्यतया विषयेंद्रियोंसे संबंधित सुख-दुःख से व्याप्त रहता है। उसकी सुख-तृष्णा असीम रहती है इसलिये प्राप्त सुखसे दुःख ही अधिक प्रतीत होता है । तृष्णा भी एक प्रकारका दुःख ही है। क्योकि उसके पैदा होते ही दुःखका प्रारम्भ होता है । इसलिये मनुष्य सोचने लगता है कि इस प्रकारके सुख-दुःखका अतिक्रमण करके केवल चिरतन, निर्दोष, निरालय सुखका शोध करना चाहिये और वह इस प्रयासमें लगता है। इसी सुखको
आत्म-सुख कहते हैं। वही जब नित्य होता है तब मोक्ष कहलाता है । वचनकारोंने उसीको शिवैक्य, लिंगवय, निजैक्य आदि कहा है। ......
इस मुक्तिका निरन्तर आनंद अथवा इसका किंचित्-सा अंश भी मनुष्यका निर्विवाद प्राप्तव्य है। मनुष्य जव यही अपना एक मात्र ध्येय होनेका निश्चय कर लेता है तव उसे प्राप्त करनेका प्रयास करता है।
"मैं पापी हूँ" "मैं दुःखी हूँ" "मैं क्षुद्र हूँ" "मैं निर्बल. हूँ" आदि भावनाएं। मनुष्यके दुःवके कारणीभूत हैं। इस भावको नष्ट करनेके लिये, "मैं शरीर हूँ" अथवा "मैं मन हूँ" "मैं बुद्धि हूँ" यह भाव नष्ट हो कर -"मैं प्रात्मा हूँ, "मैं चैतन्य स्वरूप हूँ" इन भावोंकी प्रतीति होनी चाहिये । यह प्रतीति ही स्वरूप-ज्ञान कहलाता है । वही जब प्रत्यक्ष होती है तब उसे साक्षात्कार कहते हैं हैं । अर्थात् मुक्ति ही प्रानन्द है, और आनंद कैसे प्राप्त होगा? इस प्रश्नका उत्तर है साक्षात्कारसे । इसीको वचनकारोंने अनुभाव, अनुभव-युक्त ज्ञान, प्रत्यक्ष प्रतीति, आदि कहा है। अब देखें साक्षात्कार किसे कहते हैं ? ...
साक्षात्कारका अर्थ है आत्यंतिक सत्यका प्रत्यक्ष ज्ञानी जैसे हम भौतिक पदार्थोके सत्य-ज्ञानको प्रत्यक्ष-ज्ञान कहते हैं वैसे ही आत्यंतिक सत्यके प्रत्यक्ष ज्ञानको साक्षात्कार अथवा अनुभाव कहते हैं। हम जैसे आँख और कानसे रूप... और शब्दका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं वैसे ही शुद्ध, निर्मल, निरपेक्ष अन्तःकरणसे परात्पर सत्यका प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं, और इसीको साक्षात्कार कहते हैं। जैसे सूर्य प्रत्यक्ष दीखता है. गरजनेवाले बादलोंकी गर्जना हमारे
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