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मुक्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है
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भी कभी निर्माल्य (क्षय) होता है क्या ? तुमने पास आकर मुझे गले लगाया तो भी क्या मुझे पुनः जन्म मरणका बंधन है ? कूडलसंगमदेव अपने चरणों में ही मुझे स्थिर करलो रे !
विवेचन --- पूर्ण ज्ञान होनेपर कर्म वीजोंका नाश होता है, उससे पुनर्जन्म नहीं होता । जन्म-मरणका चक्र रुकता है । जन्म-मरण रहित होते ही विदेहमुक्ति कहलाती है । किंतु यह देह रहते हुए भी वैसा ज्ञान हो सकता है । वैसा पूर्ण ज्ञान होने पर, देहपात होनेतक मनुष्य जीवन मुक्त कहलाता है । यह सबसे महान् स्थिति है । वह संसारके सब काम करता है किंतु वह कोई काम किसी ग्राशासे नहीं करता । उसको कर्म - फलकी आशा नहीं होती क्योंकि उसको जो कुछ. प्राप्त करना था वह सब प्राप्त करके वह ग्राप्त काम वन जाता है । उसका तन-मन-प्रारण सब ग्रात्ममय बना रहता है, इसलिये वह सदा-सर्वदा पूर्ण तृप्त रहता है । उसके कर्म - वीज जले हुए रहते हैं । जैसे जले हुए बीजों की फसल नहीं होतीं वैसे उनके कर्मबंधनकारक नहीं होते । वह निरपेक्ष होता है इस लिये निर्लिप्त भी । उसकी सब इंद्रियाँ कार्यरत रहती हैं किंतु उसका चित्तसदैव परमात्मामें स्थित रहता है । वह स्थिर-मति होता है । कोई भ्रम उसको नहीं छूता | मरने के बाद मुक्ति मिलती है यह कल्पता भ्रामक है । जीवन्मुक्त - होना ही मुख्य है । उसीको सहज समाधि कहते हैं । यदि यह वात सध गयीतो और बातें अपने ग्राप हो जाती हैं । इसलिये जीवन मुक्ति, अथवा सहजसमाधि अथवा समरसपद यही जीवनका परमसाध्य है ।
वचन -- (७८) खंडित भाव मिटकर प्रखंड पर ब्रह्म में समरस भला क्रिया-कर्म, ध्यान- मौन, नित्य नेम क्या रहा ? मूर्ति श्रौर प्रतीकोंकी पूजा कैसी ? और ज्ञानका व्यवहार कैसा ? यह सव विस्मरण अर्थात् ज्ञानके भिन्न-भिन्नपरिमाणकी प्रतीति के अलावा अविरल समरस सौख्यका लक्षण नहीं है रे ! यह जानकर, सब प्रकारके तुच्छ संकल्प, विपरीत भ्रांति छोड़कर और केवल ज्ञानको ही अपना ठौर समझकर देह रहनेपर भी विदेही वना हूँ श्रखंडेश्वरा ।
टिप्पणी: - सहज समाधिमय समरस जीवन में क्रिया कर्म का कोई स्थान नहीं है । यह क्रियाकर्म समरस जीवन के प्रभावका द्योतक है । यह सब व्यथ है । शुद्ध ज्ञान ही अपने आपको जाननेका साधन है ।
(७९) किया हुआ कर्म न जाननेवाला भक्त, मिला हुआ मिलन न जानने-वाला भक्त, कर्म और मिलनके बंधन और अनुभूतिके परे जाने के वाद, निःसंग, निःसीम, निदेहि निराभार नित्य मुक्त-भक्त सत्य में विलीन हो जाता है महालिंगगुरु सिद्धेश्वर प्रभु ।
(८०) शरीरके तुझसे प्रालिंगित होकर महालिंग होने के बाद पुनः कहाँ से :