________________
सृष्टि का रचना-क्रम :
१७७
गुरुजनोंसेहुई जिज्ञासापूर्ण चर्चासे "शून्यने अपनी श्रेष्ठताके स्मरणसे" इस शब्दावलीका प्रयोग किया गया ।
माया शक्ति= प्रावरण-शक्ति, छाया, सत्य-ज्ञानको अंशतः ढकनेवाली शक्ति, इससे एकतामें अनेकता दिखाई देती है ।
(३६) कुछ भी नहीं था वहां, एक महाशून्य अपनी ही लीलासे स्वयंभूलिंग-स्थल बना । उस लिंगसे बनी शिवशक्त्यात्मिकता, उसी शिवशक्त्यात्मिकतासे आत्मा वनी। प्रात्मासे आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल, और जलसे पृथ्वी वनी, उससे यह जीवराशि बनी; तुम्हारे संकल्प मात्रसे यह सव बना सिम्मुलिगेय चन्नरामा ।
टिप्पणी:-यहाँ आत्माका अर्थ सादाख्य तत्त्वसे है । (सत् पाख्या है जिसकी उसका भाव) इसमें कहा हुआ क्रम प्रचलित क्रमसे जरा भिन्न-सा दीखनेपर भी तत्त्वतः इसमें कोई भिन्नता नहीं है। यहाँ पंच महाभूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन है।
(३७) जलमें लहरनेवाली लहरें, फेन और बुदबुदोंकी तरह, सोनेमें छिपे अनेक प्राभरणोंकी संभावनाओंकी तरह, बीज में छिपे पत्र-पुष्प-फलादिकी तरह, एक ही एक वस्तु में गुणत्रयकी संभावनाएं निहित हैं। इन गुण त्रयोंसे मल त्रयका निर्माण होता है, मलत्रयसे लोक-रचनाका विकास होता है, लोक-रचनाकी बहुलतासे पाप-पुण्य वढ़ते हैं, बढ़नेवाले पाप-पुण्यसे स्वर्ग-नरकादिकी उत्पत्ति हुई, और स्वर्ग-नरककी बुराई और विनाशका रहस्य जानकर उसने अपनी माया समेट ली। मायाको समेटते ही दीखनेवाला सब विलीन हो करके तू अकेला ही रहा, यह शास्त्र-प्रसिद्ध है । समुद्रके पानीसे वाष्प वनकर, पुनः वादलके बरसनेसे वही पानी नदी-नालोंके रूपमें समुद्रमें ही लय हो जाता है, अतएव तेरा भी एक ही स्थानमें खड़ा न रह कर, देख न सकनेसे, अनेक स्थानों में अनेक रूप धरकर वहना उचित नहीं है रे प्राणी ! ऐसा उपदेश देनेवाले सद्गुरु चन्न बसवके चरणोंमें नमोनमः नमोनमः कह कर जिया यह कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन ।
टिप्पणी:-गुणत्रय=सत्व, रज, तम नामके तीन गुण । मलत्रय== प्राणव. मल, मायामल, कामिक मल नामके तीन दोष । यहाँ पर भी प्रचलित क्रमसे भिन्न प्रकारका निरूपण किया गया है। किंतु समग्र वचन-साहित्यके अनुसार सृष्टि-रचनाके अाधार भूत तत्व ३६ हैं। सद्गुरु चन्नवसव वचनकारोंका अग्रणी हैं । वचनकारने कृतज्ञता-पूर्वक अपने गुरुको प्रणाम करके इस वचनकी पूर्ति की है।