________________
सृष्टि
आत्यंतिक सत्यका अनुभव द्वंद्वातीत होता है, निरपेक्ष होता है, एकरस और एकरूप होता है, वह देश-कालके परेका होता है, किंतु सामान्य अनुभव देश-कालके अन्दरका होता है। द्वंद्वसे पूर्ण होता है। सापेक्ष और विविध परिवर्तनशील होता है । पहला अनुभव सत्यका अनुभव है और दूसरा अनुभव सृष्टिका है । ये दोनों अनुभव प्रत्यक्षानुभव हैं । पहला अनुभव प्रांतरिक अनुभव है तो दूसरा वाह्य है। पहला ज्ञान चक्षुषोंको सूझता है तो दूसरा चर्मचक्षुत्रोंको दीखता है । जो अनुभव अान्तरिक है, ज्ञानचक्षुत्रोंको सूझने वाला है वह तात्विक सत्यका अनुभव है और जो चर्म चक्षुत्रोंको दीखता है वह व्यावहारिक सत्यका है । आत्यंतिक सत्य स्वयंभू है और व्यावहारिक सत्य उसका प्रतिबिंब है । उस तात्विक सत्यका अवलंबन करता है । इस व्यावहारिक अनुभवके अाधारभूत यह विविधतापूर्ण सृष्टि कहांसे और कैसे आई यह प्रश्न अब हमारे सम्मुख प्रस्तुत हैं ।
वचनकारोंने इस प्रश्नका उत्तर दिया है कि उस अनंत सत्य-तत्वने, उस महाशक्तिने अपनी लीलाके लिये इस सांत, विविधतापूर्ण सृष्टिका सृजन किया है । यदि दार्शनिक दृष्टिसे यही वात कहनी हो तो "इस प्रकार विविधतापूर्ण सृष्टिके रूपमें दीखना सत्यका एक स्वभाव ही है" ऐसा कह सकते हैं । सत्य अपने आपमें सृष्टिका सृजन करके उसी में अव्यक्त रहकर, चैतन्यात्मक भावसे सर्वव्यापी होकर स्वयं निर्लिप्त रहता है । आगत वचनों का यही भाव है।
वचन--(१६) महाकत ने अपनी शक्तिके विनोदके लिये विश्वका सृजन किया । अनंत लोक, सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र, विद्युत् और प्रकाशको, देशकाल, कर्म
और प्रलयको, नर-मादा, भिन्न-भिन्न जातिके प्राणी, सुर-असुर, मानवेतर प्राणी, जलथल, योग-भोग, आयुष्य, निद्रा-स्वप्न, जागृति आदि समस्त संसारको, चौरासी लक्ष जीवयोनियोंमें सृजा अपने विनोदके लिये। इस यंत्र-चालकके नियमोंको कोई नहीं जानता । सब आत्माएँ मलपाशसे बँधकर पशु वनीं और वह स्वयं पशुपति बना हमारा निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलिंगेश्वर ।
टिप्पणी:--मलपाश=पारणव मल, माया मल, कार्मिक मल नामके त्रिदोष बंधन । पशुपति-पशुपक्षियोंकी रक्षा करनेवाला, पापविद्ध प्राणियोंकी रक्षा करनेवाला।
(१७) बंधन रहित निलिप्त प्रभो ! तुम्हीसे तुम शून्यमें रहकर स्वयंभू बन गये न ? वीज-वृक्षकी तरह तुम ही साकार-निराकार बन गये न ? महाक ने अपनी शक्तिके विनोदके लिये इस विश्वकी रचना की स्वतंत्र सिद्ध लिंगेश्वर।