________________
सृष्टि
विवेचन--पिछले अध्यायमें परात्पर सत्यका वर्णन किया गया। वह वर्णन दृश्य जगतके उस पार जो अदृश्य तत्व है उसका था। उस अदृश्य तत्वको समाधि स्थितिमें स्थिर होनेसे जाना जा सकता है । अर्थात् वह समाधि स्थितिमें प्राप्त प्रतीतिका वर्णन था। किंतु इस चित्तका दूसरा भी अनुभव है। चित्त सदा-सर्वदा समाधि स्थितिमें ही स्थिर नहीं रहता। वह अन्य अनेक बातों में उलझता भी है। उस समयका अनुभव विश्वका अथवा विश्वकी विविधताका अनुभव है । __ ज्ञान का प्रमुख साधनही चित्त है। इस साधनसे प्रात्यंतिक सत्य सागरकी गहराई देखने का प्रयास किया जाय तो उसकी तह तो नहीं मिलती किंतुः हमारा चित्त ही उसमें डूब जाता है । जव हमारा चित्त उसमें डूब जाता है तव तदाकार हो जाता है, जैसे नमकका पुतला पानी में डूबकर स्वयं पानी वन' जाता है । तव भला वह "अपना" अनुभव कैसे कहेगा ? कल्पनामें न आनेवाले, शब्दोंमें न गूंथे जानेवाले, उन अवर्णनीय अनुपम अनुभवोंको जिन महापुरुषों ने प्राप्त किया है, तथा जिस ढंगसे प्राप्त किया है उसका द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि परिभाषामें उन्होंने वर्णन किया है । वह तत्व अज्ञेय है, इसलिये किसी भी प्रकारसे तथा कितनी ही भाषा-चातुरीका प्रयोग करके, उसका वर्णन किया जाय तो भी वह अधूरा ही रहता है। उसका पूर्ण वर्णन करना असंभव है। इस प्रकारके वर्णनके शब्द अलग-अलग होते हैं किंतु वह परमानुभव एक ही है। एक ही परमानुभवको भिन्न-भिन्न प्रकारसे, भिन्न-भिन्न शब्दोंसे वर्णन किया जाता है किंतु वह परमावधिका आनंदानुभव एक ही है । सभी मुक्त कंठसे उसीका वर्णन करते हैं। ___उस अनुभवको आत्यंतिक सत्य माननेपर भी जीवनमें वह नित्य नहीं है । पराकाष्ठाके प्रयत्नोपरांत प्राप्त किया हुआ वह अनुभव भी क्षणिक होता है । वृत्तिरूप होता है । स्थिति रूप नहीं । इसमें संशय नहीं कि वह मानवी चित्तका आत्यंतिक और अत्युच्च अनुभव है, वह जीवनमें सर्वोपरि, अत्यंत प्रिय'.
और इष्ट है यह सब होने पर भी हमारी ज्ञानेद्रियाँ इस विश्वका अनुभव करती ही हैं। हम सदैव आकाशसे परिवेष्टित रहते है, उसीमें चलते फिरते रहते हैं किंतु उसका ज्ञान व भान हमें नहीं होता, वैसे ही हम उस परमात्म-तत्वमें पैदा हो करके, उसी में जीवन व्यतीत करनेपर भी अपने चित्तकी अनेक व्यग्रताओंके कारण उस सत्य-तत्वका ज्ञान और भान नहीं कर पाते ।