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वचन-साहित्य-परिचय वचन-(१) अजी ! निरवय, शून्य लिंग-मूर्तिका दर्शन न साकार ही है न निराकार ही, निरवय, शून्य लिंग-मूति न आदि है न अनादि, न इस लोककी है न परलोककी, न सुखकी है न दुःखकी । निरवय, शून्य लिंग-मूर्ति न पापमें है न पुण्यमें (न पापकी है न पुण्यकी) न कर्तृ न भर्तृ, न कार्य-कारणकी है, न धर्म-कर्मकी है और न पूज्य-पूजक ही है । इस प्रकार इन दृद्वोंका, उभय का, अतिक्रमण करके प्रकाशती है वह गुहेश्वर लिंग मूर्ति' ।
टिप्पणी:-निरवय शून्य लिंग-मूर्ति=किसी प्रकार गोचर न होने वाली केवल चिद्घन वस्तु, केवल चैतन्य-पूर्ण तत्वका बोध चिन्ह ही लिंग है। वह केवल शून्यका बोध कराता है इसलिए शून्य लिंग है।
द्वंद्वोंका अतिक्रमण करके द्वंद्वसे परे जा करके, मूल शब्द "उभय दलिटु" है; "उभय"का अर्थ है द्वंद्व और "अलिदु"का अर्थ मिटाकर ऐसा होता है । मिटाने का भाव व्यक्त करने के लिए "अतिक्रमण" शब्दका प्रयोग किया है ।
(२) न अन्तरंग है न वाह्यांग, न अर्घ्य है न जटा-जूट, न अन्य शरीर कुछ भी नहीं है; दश दिशाएँ, विश्व, संसार, ऐसा कुछ भी नहीं, स्थिर-स्थावर,
आत्माओंका आधार अथवा कर्ता, कुछ भी नहीं ! ऐसा सर्व शून्य निरालंब है न तू महालिंग गुरु सिद्धेश्वर प्रभु !
टिप्पणी:-सर्व शून्य-अगोचर सत्ता ही शून्य है.। श्रुतियोंमें "नेतिनेति" कहकर जिसका वर्णन किया है वही शून्य है।
(३) तुम न पृथ्वी में हो न आकाशमें, इस त्रैमंडलके आधारभूत भी नहीं, होम, नेम, जप, तपमें भी नहीं, तब तुम्हें कौन जानेगा ? हरि-हर-ब्रह्मको भी अगोचर, निरवय, निरंजन, वेद भी जिसे "नहीं" कह कर जानते हैं । श्रुति-स्मृति-शास्त्र भी तुम्हें नहीं जानते, आकाश-कमलकी सुगंधके उस पार रहने वाले गुहेश्वरा तुम्हारे रहनेका ठांव कौन जाने ?
टिप्पणी:- त्रैमंडल=पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग; निरंजन=शुद्ध, निष्पाप, निर्दोप; आकाश-कमलकी सुगंधसे उस पार-आकाश-कमल ही काल्पनिक है, उसकी सुगंध और अधिक काल्पनिक, उसके भी उस पार अर्थात कल्पनातीत, कल्पना की सीमासे परे। ... .
(४) अपने आप न आदि है न अनादि, न अजांड ब्रह्मांडमें है, नाद बिंदुः कलातीत, जन-परमोंका भी नहीं है। नाम-रूप-क्रियातीत, सचराचर रचनामें भी न आनेवाला, पर, अखंड, परिपूर्ण, अगम्य, अगोचरके परेका महाधन चैतन्य अप्रमारण कूडल संगम देवा ।
१. मोटे अक्षरों में छपे वाक्यांश वचनकारकी मुद्रिका है ।