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परमात्मा अथवा परात्पर सत्य
विवेचन-सदैव अपरिवर्तनीय, सदा एकरूप, अबाधित रहनेवाला तत्वही परात्पर सत्य है । संपूर्ण चैतन्य अथवा चिन्मय होनेसे उसको चित् कहते हैं अथवा परमात्मा कहते हैं।
हमारी अांख, नाक, जिह्वा, त्वचा तथा हमारे कान, इन पाँच ज्ञानेंद्रियोंको ज्ञात होनेवाली सब वस्तुएँ प्रति-क्षण परिवर्तनीय स्वभावकी हैं। इन वस्तुओंके उस पार अथवा इन वस्तुओंके अन्दर इन सबके आधारभूत अपरिवर्तनशील एक नित्य सत्य तत्व है। वह देश-कालसे अतीत है। वह मानव-बुद्धिके लिये अगोचर है। उसको जानना मनुष्य की बुद्धि शक्तिसे परे है किन्तु "वह है" इसकी प्रतीति अथवा इस विषयका स्फूर्त-ज्ञान मनुष्यकी निरपेक्ष शुद्ध चुद्धिको होता है । वह “एकात्म प्रत्यय सार" सा है । समाधि-स्थितिमें जब चित्त सत्य वस्तुमें विलीन होता है तब "वह एकरूप एकरस है" इसकी प्रतीति होती है । ऐसे समय जो-जो अनुभव हुए, उन सब अनुभवोंको कुछ 'अनुभावियों'' ने अनेक प्रकारसे व्यक्त किया है । वही सत्य स्वरूपका वर्णन है । वही परमात्माका वर्णन है । इस प्रकारसे जिसका वर्णन किया गया है वही परात्पर सत्य है । वही परमात्म-तत्व हैं ।
वचनकारोंका कहना है कि उस तत्वका यथार्थ वर्णन करना असंभव है। इसलिये उसको अवर्णनीय कहते हैं । वह अनिर्वचनीय है । वाङ्मनके लिए अगोचर है । यह विश्व परिवर्तनीय है अर्थात् शीत-उष्ण, अंदर-बाहर, साकारनिराकार, सुख-दुःख, आदि द्वंद्वों अथवा सापेक्ष गुणोंके आधीन है । परमात्मतत्व अपरिवर्तनीय है अर्थात् इन सापेक्ष गुणोंके परे है । वह नाम, रूप, गुण आदिसे अतीत है। यदि उसकी तुलना करनी ही हो तो आकाशसे कर सकते हैं । आकाशका आकार और अंत जानने वाला भी कोई है ? सत्य भी आकाश की तरह सर्वत्र, सर्वव्यापी है। उसीको वचनकारोंने आत्यंतिक सत्य, परमात्मा, आत्मा, शून्य, शून्य लिंग, निरवय, चित्, आदि कहा है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये सब नाम यथार्थ हैं । ठीक अन्वर्थक हैं। क्योंकि वह अवर्णनीय है । कोई भी शास्त्र, उसका यथार्थ वर्णन नहीं कर सकता । केवल उस ओर संकेत भर कर सकता है।
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१. अनुभावी-साक्षात्कारी।