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परमात्मा अथवा परात्पर सत्य
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टिप्पणी:- नाद बिंदु कला - अव्यक्तशक्ति पहले नाद रूपसे, बादमें बिंदु रूपसे, उसके वाद कला रूपसे व्यक्त हुई तव अनेकरूप सृष्टि हुई ऐसी मान्यता है | ग्रजांड=ब्रह्मांड; जन परम श्रेष्ठ जन; चैतन्य लिंग - चिद्रूप लिंग ।
(५) वचनोंकी रचना वातोंका समूह नहीं है रे ! देख करके बखान करने वाले सब उस मूर्ति में विलीन हो गये । वेद-शास्त्र, श्रुति स्मृति सव "नहीं दीखता" यही कहते रह गये । तीनों लोक जानते हैं गुहेश्वर साक्षी है देख इसका सिद्धरामय्या |
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टिप्पणीः - यह वचन ग्रल्लम प्रभुने सिद्ध रामय्या से कहा था । इसका तात्पर्य, अनंत वचनोंकी रचना करनेपर भी परमात्म स्वरूपका वर्णन करना असाध्य है ।
विवेचन - दृश्य जगतको देखनेवाली हमारी सामान्य दृष्टिसे केवल शून्यकी तरह दीखनेवाला, अव्यक्त, सनातन, द्वंद्वातीत सृष्टि के श्रादिमें रहनेवाला, अगोचर, ग्रगम्य तत्व, उपर्युक्त ढंगसे वखाना गया है । वह तत्व शून्य रूप है, वह एकमेव ग्रज्ञेय तत्व है । वह स्वयंभू है, इस विषय में अनेकानेक वचन हैं । वचनकारोंने कभी-कभी उस तत्वको पुरुषाकार मानकरके भी वर्णन किया है तो कभी-कभी केवल चिन्मय मानकर वर्णन किया है । इसलिये कहीं-कहीं "वह" "यह" (कन्नड़ में नपुंसक लिंगी "ग्रदु" "इदु" श्रोर कहीं-कहीं "मैं" "तुम" ( कन्नड में "नानु" "नीनु") संवोधन पाया जाता है । "नानु" अर्थात् "मैं" नामका व्यक्ति जव "दु" "वह" ( कन्नड़ में नपुंसक लिंगी) नामकी दिव्य शक्ति है इस रूप में उस सत्यकी ओर देखता है तब वही ईश्वर-सी लगती है । दार्शनिक उस शक्तिको श्रव्यक्त, निर्गुण, शून्य यादि कहते हैं तो भक्त उसीको अनंत गुण, अनंत शक्ति सम्पन्न, अनंत रूप, ग्रादि कहते हैं । एकही गुणातीत शक्ति, ज्ञानकी दृष्टिसे निर्गुण और भावकी दृष्टिसे सगुण सी लगती है ।
वचन - (६) काल - कल्पित कुछ न होकर तुझसे ही तू हुआ है न ? तुम्हारे परमानंदके प्रभावके परिणाम में अनंत काल ही था न ? तुम्हारी स्थिति' तुम स्वयं जानते हो न ? तुम्हारा निजभाव: तुमही जानते हो न कूडल चन्न संगम देव |
टिप्पणीः - १ मूलशब्द निलवु है, उसके स्थान और स्थिति ऐसे दो अर्थ हैं । २ ग्रात्मभाव, सत्य भाव ।
(७) जानता हूँ कहने से ग्रज्ञानका ही वोध होता है । ( उससे ) न जानने का ही भाव स्पष्ट होता है देख, घनके लिये वह स्वयं घन है देख, चन्न मल्लिकार्जुन विना निर्णयका ही रह गया ।