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वचन साहित्य में नीति और धर्म
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श्री सत्य बोलना ही नरक कहा है । उनकी दृष्टिसे जैसा अनुभव किया वैसे कहना शील है । जैसे कहा वैसे चलना शील है । इस प्रकार उन्होंने करनी और कथनी के समन्वयको ही शील कहकर हिंसा के विषय में भी अपना वैशिष्ट्यपूर्ण मत दिया है ।
श्रात्मंवयकी भावना वचनकारोंकी ग्रहिंसाका प्राधार है । किसी भी प्राणी के शरीर अथवा मनको दुखाना अपनी ही श्रात्माको दुखाना है जब तक मनुष्य 'श्रात्मवत् सर्वभूतेषु' अनुभव नहीं करता तब तक वह पड़ोसियोंका सुख-दुःख अपना सुख-दुःख नहीं समझ सकता । और जब वह सर्वत्र एक ही श्रात्माका अनुभव करता है, सबको एक ही ईश्वरांश संभूत मानता है, तव भला अपनेको नौरोंसे अलग कैसे मान सकता है ? ऐसी स्थितिमें यह केवल अपने ही तन और मनका स्वामी नहीं है । वह सब शरीरोंका स्वामी है । सबके मनका स्वामी है । सबमें एक ही एक आत्मा बसता है न ? इसलिए सबका दुःख उसका दुःख बन जाता है। वह सबके सुखकी साधना करने लग जाता है । 'सर्वे सुखिनः संतु सर्वे संतु निरामयाः' की साधना करने लगता है । श्रात्म-साक्षात्कारका अर्थ 'सर्वेः सुखिनः संतु' की महासाधना का प्रारंभ है । इसलिए ग्रहिंसा, अर्थात् निषेधात्मक रूपसे हिंसा न करनेका अर्थ विधायक रूपसे सबसे प्रेम करना है । यह साधकका साधारण स्वभाव बन जाता है यही सामाजिक अथवा सामूहिक शांति की आधारशिला है। हिंसाका अर्थ केवल हिंसा न करना ही नहीं, वरन् द्व ेष, वैर, दुष्टता, घृणा श्रादिका त्याग करना, तथा दया, करुणा यादि देवी गुणोंसे प्रेरित होकर सबसे प्रेम करना है । इसलिए सब संतोंने 'दया' पर वल दिया है । तुलसीदासजीने 'दया धर्मका मूल है' कहा, तो बसवेश्वरने 'दयेये धर्मद मूलवु' कहकर 'दये इल्लद धर्म याव दव्या ? ऐसा रोकड़ा सवाल पूछा । बसवेश्वरका वचन 'दयेये धर्मंद मूल' और तुलसीदासका वचन 'दया धर्मका मूल है, दो भिन्न-भिन्न भाषाओं में कहा गया एक सिद्धांत है | अक्षरशः एक है । वचनकार पूछते हैं, 'विना दयाके भी कोई धर्म है ?" वह यज्ञ-मार्गकी हिंसाको भी सहन नहीं करते। वह स्पष्ट पूछते हैंश्रुति, स्मृति, पुराणों में केवल मारनेको ही बात कही है क्या ? सर्वभूत हितकी बात नहीं कही है क्या ? श्रात्म-ज्ञानके पश्चात् भी मारना - काटना रहता है क्या ? उनके प्रश्न प्रत्यन्त मार्मिक हैं। उन्होंने मांस भक्षणका भी विरोध किया है । परिणामस्वरूप दक्षिण में बहुत से शूद्र भी मांस नहीं खाते । वीरपैव तो उसको निषिद्ध ही मानते हैं । यदि कभी किसीने कहा कि वेदों में पशुका प्रमाण है तो वे पूछते हैं, "वेद वकरोंकी मौत हैं क्या ?" उनके मूल
६. दया रहित धर्म कौन-सा है ?