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वचन साहित्य परिचय
हिंदू धर्मने सत्य पर बल दिया है । जैनोंने अहिंसा पर । बौद्धोंने तृष्णाजय पर तो ईसाइयोंने प्रेम र सेवा पर अधिक बल दिया है। किंतु सभी धर्मो नैतिक नियमों विधि निषेध कहे हैं । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, इंद्रिय निग्रह यादि नियमोंका पालन करनेका प्रादेश दिया है । वचनकारोंने भी इन सब नियमोंका महत्त्व माना है । इसके आचरण पर बड़ा बल दिया है । क्योंकि बिना इसके कोई धर्म टिक नहीं सकता ।
वचनकारों की दृष्टिसे अनीतिके सव बीज अहंकार और तज्जन्य श्रथवा तत्प्रेरित आशा में हैं । उसीसे सब प्रकारकी अनीति महुलाती है । जैसे-जैसे अहंकार और आशा क्षीण होती जाएगी वैसे-वैसे ग्रनीति नष्ट होती जाएगी । 'मैं' दुनियासे पृथक् हूं । सब सुख मेरे लिए चाहिए। यह भावना अहंकार के मूल में है । इससे मैं और तूका भेद प्रारंभ होता है । इस भेदके श्राते ही धूर्तता आती है । कुटिलता, कपट, कुतंत्रकी हवा चलती है, जिससे ज्ञान ज्योति बुझती है | ज्ञानके अभाव में अथवा ज्ञानकी विकृत स्थितिमें बड़े-बड़े विद्वान् भी तमके अंधकार में पड़ते हैं । अहंकार इतना सूक्ष्म और शक्तिशाली है कि कभी भी किसी वस्तु के विषय में श्राशा निर्माण कर सकता है । वचन - साहित्य में इस विषय पर खूब सुन्दर वचन हैं। उन्होंने विशिष्ट दृष्टिसे समाज शास्त्रका निर्माण किया है । वचन- साहित्य में सामाजिक विधि-निषेध बताने वाले हजारों वचन हैं। उन्होंने कहा है, प्रशासे मनुष्य पराधीन होता है । निरपेक्ष मनुष्य स्वाधीन रहता है । शाकी सीमाका प्रतिक्रमण किया कि कैवल्यकी सीमा में प्रवेश हुग्रा । वचनकारों की दृष्टिसे निरपेक्षता ही समाज स्वास्थ्यका मूल है । इस निरपेक्षतासे सतत कार्य करते रहने से अभ्युदय तो होगा ही अपेक्षा के प्रभावमें वह निःश्रेयसाभिमुख भी होगा । निरपेक्ष - कर्म-जन्य श्रभ्युदय निःश्रेयसकी भूमिका होगी । इससे निःश्रेयसाभिमुख अभ्युदय होगा और अभ्युदयानुकूल निःश्रेयस भी सघेगा ।
वचनकार अत्यन्त सत्यप्रिय हैं । उनके मत से सत्य ही सब नैतिक नियमोंके शीर्षस्थान में रखने योग्य तत्व है । इस विश्वकी जड़में ही सत्य है । सत्य सतत एकरूप रहता है । वह कभी परिवर्तित नहीं होता । सत्य ही धर्म | जो बात जैसे अनुभव होती है वैसे कहना सत्य | सत्य श्रौर उससे होने वाली विजयका सम्बन्ध वैसा ही है जैसे कर्म और उसके फलका होता हैं । मुक्तिका मार्ग सत्यका मार्ग हैं | वचनकारोंकी दृष्टिसे सत्य कोई बौद्धिक विषय नहीं हैं । वह अनुभव और आचरण से स्पष्ट होने वाला विषय है । वचनकारोंने सत्यवादी से किसी प्रकारका संबंध न रखनेकी सलाह दी है । उनकी अनुमतिमें असत्यका ग्रर्थ है आत्म-वंचना | आत्म-वंचना श्रात्मघातः सा है । कभी-कभी उन्होंने कहा है कि श्रात्मवंचनासे बड़ा पाप नहीं । वचनकारोंने तो सत्य बोलना ही स्वर्ग