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वचन - साहित्य - परिचय
था । यह नित्य नूतन है क्योंकि उसके अंदर सत्य है और सत्य सदैव नित्य नूतन रहता है | यह नित्य नूतनता ही उसके सनातन होने का प्रमाण है ।
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समाज में सदियोंसे जड़ जमाये हुऐ जाति-भेद को यकायक संपूर्णतया मिटाना असंभव था। उन्होंने अपना ही एक नया समाज बना लिया । वह उनका साधक परिवार था । समाजके सामने रखे हुए उनके विचार और ग्राचारका सुंदरतम प्रात्यक्षिक था । इससे जन सामान्य में उत्साहकी लहर दौड़ गयी । समाजने उसका सुंदर परिणाम देखा । नित्य हजारोंकी संख्या में आकर लोग दीक्षा लेने लगे । वचनकारोंने कहा, दीक्षा आगकी चिनगारी सी है । जहां पड़ी वहांका कूड़ा-वर्कट राख हुआ समझो ! चाहे कोई ब्राह्मरण हो या चांडाल, एक चार शिवकी शरण गये कि स्वयं शिव स्वरूप हो गये । फिर न जाति है न कुल और न गोत्र । सब शिवकुल के हैं । सती और पति दोनों सम्मिलित रूपसे दीक्षा लेंगे, तो वह शिवको अधिक रुचेगा । श्रांखें दो होने पर भी जैसे दृष्टि एक ही है वैसे ही पति और पत्नी दीखने में दो होने पर भी उनका हृदय एक होता है । इस प्रकार के विचारोंसे उन्होंने समाज में स्त्री और पुरुषमें जो अंतर था उसको मिटाया | सामाजिक समता और सामूहिक सहयोग, यह उनके समाजकी बुनियाद है । इस वुनियाद पर रचे गये समाजमें नये आदर्शका वीजारोपण किया | उन्होंने इसका यत्किचित् भी विचार नहीं किया कि पूर्व परंपरा क्या है ? किस ग्रंथ में क्या लिखा है ? उस समयकी रीति-नीति क्या थी ? उन्होंने ग्रंथस्थ पांडित्यका विचार नहीं किया। उन्होंने स्वानुभव के अमृत-विदुको ही पर्याप्त समझा | अपने प्रांतरिक अनुभवको ही गुरु माना । सर्वार्पण से अंतरबाह्य को शुद्ध कर लिया । और लोक हितसे प्रेरित हो करके समाजका नेतृत्व किया उन्होंने निरपेक्ष भावसे कर्म करनेवाले कर्म योगियोंका श्रादर्श समाजके सामने रखा । उन्होंने कहा, यह संसार मिथ्या नहीं हैं । विवर्त नहीं है । यह सत्य है । जबतक हम इस संसार में हैं विश्वात्मासे समरस होकर जीवन विताना श्रेष्ठतम आदर्श है । इसलिए परमात्माने अपनी इच्छासे तुम्हें जो कुछ दिया है उसको शिवार्पण करो । उसका प्रसाद मानकर ग्रहण करो। वह तुम्हें जैसे रखता है वैसे रहो । अपने सामने जो कर्म आता है वह स्वकर्म करो । उसी कर्म में विलीन हो जाओ । यही जीवनका सर्वोच्च श्रादर्श है । यह श्रादर्श वचनकारोंने अपने नये समाज के सामने रखा। इसमें संशय नहीं कि इस प्रदर्शको श्राचरण में लाना प्रासान नहीं था । किंतु वह ग्रादर्श ही क्या जो हाथ उठाते ही हाथ लग जाय ? उनका आदर्श कठिन था, किंतु पूर्ण था । न तो वह संन्यास-मार्ग है; न संसार मार्ग | वह अभ्युदय प्रधान निःश्रेयस है । अथवा निःश्रेयसाभिमुख श्रभ्युदय । वह भुक्ति और मुक्तिका समन्वय करनेवाला मार्ग था । वह करके भी न