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वचन - साहित्य- परिचय
है | यही हमारा जीवन है । संत एक-दो प्रादमियोंका गुरु नहीं होता । वह तो समाजका गुरु होता है। संतोंने गुरुका माहात्म्य गाया है । गुरु केवल दीक्षा गुरु नहीं है । कान फूंकनेवाला गुरु नहीं है । गुरु वही है जो मोक्षका मार्ग दिखाता हैं । मोक्ष तक ले जाता है । सत्यका साक्षात्कार कराता है । सदाचारकी शिक्षा देता है | हम ग्रंथोंसे अपनी बुद्धिका विकास कर सकते हैं । किंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि ग्रंथका अर्थ भूतकाल है । ग्रंथों को पढ़ते समय उत्पन्न होनेवाली उलझनें सुलझानेकी शक्ति उनमें नहीं होती । ग्रंथोंसे हमारी बुद्धि शुद्ध हो सकती है, वह प्रगल्भ हो सकती है । किंतु उस बुद्धिको साक्षात्कारकी जोड़ नहीं मिल सकती । जब तक बुद्धिको साक्षात्कारकी जोड़ नहीं मिल सकती तबतक उसकी दुर्बलता नहीं जाती । वह निःसत्व ही रहती है । गुरु वह काम करता है । अन्य कोई वह काम नहीं कर सकता। वह काम संत, गुरु कर सकता है । इसीलिए कहा गया है, "संत परम हितकारी ।" क्योंकि वह न केवल "प्रभु पद प्रगट करावत प्रीति" है किंतु भरम मिटावत भारी" भी है । इसीलिए वह त्रिगुणातीत तन त्यागी होता है । ऐसे ही गुरुके लिए महात्मा कबीरने "गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पांव । वलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो लखाय " — कहा है । गुरुकी वाणी अनुभव वाणी है । परमार्थ-पथ में गुरु मानो ज्योति है | संतोंने गुरुको पारस मरिण कहा है। संत तुकारामने कहा है, "सद्गुरुके बिना दूसरा चारा ही नहीं है । वह तत्काल अपने जैसा बना देता है ।" एकनाथने कहा है, गुरु ऐसा अंजन लगाता है कि बस " राम बिना कछु दीखत नाहीं" हो जाता है । कवीरने कहा है, "गुरु कुम्हार सिख कुंभ है गढ़-गढ़ काटै खोट | अंतर हाथ सहारा दें बाहर मारै चोट ।” गुरु शिष्यकी मिट्टीका घड़ा बनाता है । अंदरसे प्रेमका सहारा देता हुआ बाहरसे ठोंक ठोंककर खोट निकालता है | संत समग्र समाजको अपना शिष्य मानकर अंदरसे प्रेमका आसरा और | इसीलिए सब
वाहरसे करारी चोटें देते-देते मानव- कुलके दिव्यीकरण में लगे संतोंके वचन एक हैं । उन सबकी शिक्षा एक है । उनका अनुभव एक है । उनका जीवन-कार्य एक है। चाहे वह किसी भाषा के संत हों, किसी देशके संत हों, अथवा किसी काल में पैदा हुए हों; संत संत है और कुछ नहीं । संतोंमें न कोई बड़ा है न छोटा । न वह किसीको बड़ा मानता है न किसीको छोटा । न किसीको उच्च मानता है न नीच । उनकी दृष्टि में सब परमात्मा के ग्रंमृत पुत्र हैं । सव परमात्मा के रूप हैं । वह तो सबको परमात्म-रूप समझते हैं । सबमें परमात्माको देखते हैं | चाहे वह ब्राह्मण हो या चांडाल, चाहे भूपाल हो या गोपाल, चाहे राजा हो या रंक, चाहे पंडित हो या निरक्षर, चाहे स्त्री हो या पुरुष; उनकी दृष्टिमें सब एक हैं। क्योंकि वह सत्यका साक्षात्कार कर चुका