Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 170
________________ उपसंहार १५७ वचन - साहित्य सच्चे प्रथमें जीवनका सर्वांगीण विकास करनेवाला सर्वोदयकारी पूर्ण साहित्य है | वचनकार मुक्त कंठसे यह घोषणा करते हैं कि निर्दोष, निरावलंब, नित्यानंदमें डूबे रहना ही मनुष्य जीवनका अंतिम साध्य है, किंतु वह अपने शारीरिक, - मानसिक तथा नैतिक दायित्व से मुँह नहीं मोड़ते । मुक्ति के नशेमें कनक, कान्ता, तथा भूमिको हेय नहीं मानते, इसको माया जाल कहकर त्याज्य नहीं कहते । वे मानते हैं कि मुक्ति के लिए निष्काम होना आवश्यक है, काम मुक्त होना श्रावश्यक है, किंतु इसके लिए कामिनीको हेय दृष्टि से देखनेकी, उनको त्याज्य मानने की आवश्यकता नहीं । वे 'स्त्रीको जगदंबा मानने' का आदर्श सामने रखते हैं | वे 'परस्त्री संगको महापाप मान कर भी 'पारिण ग्रहरण की हुई स्त्री का त्याग करना भी महापाप' मानते है ! मुक्ति के लिए घर, चार, संसार आदिके त्यागकी आवश्यकता नहीं मानते । वे अपना सर्वस्व परामात्माको समर्पण करके प्राप्त भोगोंको प्रसादरूप में स्वीकार करनेकी शिक्षा देते हैं । वे मुंहसे परमार्थकी बातें करते हुए रोटी के लिए हाथ फैलाना कष्टकर मानते हुए, प्रत्येक मनुष्य के लिए चाहे वह संसारी हो या सन्यासी, नियमित 'कायक' अनिवार्य मानते हैं । कायकका अर्थ अपने जीविकोपार्जन के लिए किया जानेवाला ईश्वरार्पित प्रामाणिक शरीर - परिश्रम है । उन्होंने स्पष्ट भाषामें कहा है, 'कायक ही कैलास है, पूजा में खंड पड़ा तो क्षम्य है, किंतु कायकमें खंड पड़ना क्षम्य है ।' उनका - यह स्पष्ट कहना है कि परमात्माने जो शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक शक्तियाँ - दी हैं उन शक्तियों को मोक्ष-साधना के नाम पर कुचल देनेकी कोई आवश्यकता - नहीं, किंतु उनका दुरुपयोग नहीं होना चहिए । विचारपूर्वक उनका सदुपयोग 'होना आवश्यक है । उन शक्तियोंका समुचित विकास होना आवश्यक है । अपनी -सभी शक्तियों को परमात्मार्पण करके उनका सदुपयोग करनेका परामर्श देते हैं । -यदि हमें अपनी सभी शक्तियाँ परमात्मार्पण करनी ही हैं तो भला उन सब शक्तियों को कुचल कर नष्ट-भ्रष्ट कर, कुरुप कुरंग कर, सड़ा-गला कर परमात्माके चरणों में क्यों अर्पण करें ? भगवानके चरणों में अर्पण किया जानेवाला यह जीवन- सुमन, जीवनी-शक्ति-सुमन, खिला हुआ हो, सुन्दर हो, सुरभित हो, रसभरा हो, मधुर मकरंदसे भरा हो, यही तो पुरुषार्थ है ! यही भक्ति है ! हम अपने जीवनको परमात्माकी पूजाके योग्य पवित्र, सुन्दर फूल बनाएं । वचनकार साधकको अपने जीवनको सुष्ट-पुष्ट करके समाजके अपने अन्य साधक बंधुनों में वसे परमात्माकी पूजा करनेका उपदेश देते हैं । वे पूछते हैं परमात्मा कहाँ है ? और इसके उत्तर में कहते हैं, "वह भक्त काय मम काय कहता है ।" "वह शरण सन्निहित है !" "वह सज्जनोंके हृदय कमलमें बसा है ।" मानों वे सज्जनों को ही ,

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