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तुलनात्मक अध्ययन
धर्मका पालन करेगा, उसका पालन धर्म करेगा
संत
सत्यसे
एकनाथजी ने कहा है, "सत्या परता नाहीं धर्म सत्य तेंचि बढ़कर धर्म नहीं, सत्य ही परब्रह्म है । यही बात तुलसीदासजीने कही है, "सच कहने वाले को इस जगमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।" उन्होंने कहा है, "सांच सम धर्म नहीं झूठ सम पाप ।" वैसे ही वचनकारोंने भी सदाचार पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने विना सदाचार के बाहरी ग्राडंवरको हेय माना है । विश्व के सब संतोंने यही कहा है। ईसामसीहने मद्यपान, स्वैराचार, मार-पीट, मत्सर आदिका विरोध किया है। सूफी फकीरोंने दंभका विरोध किया है । उन्होंने कहा है, "न मुझे माला चाहिए, न वह कफनी, उसमें जो हजारों धूर्त और कुटिलोंका जो बोझ है वह कौन उठावे ? तुलसीदासजीने “सदाचार सव योग विरागा" कहा है तो सरमदने कहा है, “यदि तुमने अहंकार छोड़ा तो तुम्हें त्रिलोकनाथ मिल जाएगा। तुम उनकी लिखी हुई पुस्तकका मुख पृष्ठ वनोगे ।" उन्होंने श्रीर एक जगह लिखा है कि यदि तुम "शून्य" नहीं वनोगे तो 'सर्व' भी नहीं वनोगे ! भगवान दुर्बल- दुर्लभ है ! "जवतक तू दीपककी तरह प्रकाश देता रहेगा तब तक जलता रहेगा ।" वस्तुतः जीवनका आनंद देनेमें है, लेने में नहीं । जीवन देते जाना है, जैसे सूर्य प्रकाश देता जाता है, जीवन देता जाता है, चंद्रमा चांदनी और शीतलता देता जाता है, पृथ्वी अन्न और संपत्ति देती जाती है । सारा विश्व हमें क्या सिखाता है ? बिना किसी अपेक्षाके देना, बिना त्यागके यह कैसे संभव हो सकता है ? बड़े-बड़े ग्रंथों को पढ़ने से जीवन में त्याग नहीं याता | उसके लिए साधनाकी श्रावश्यकता है । इसीलिए वचनकारों ने आशाको अनर्थका मूल माना है । मनके सामनेवाली ग्राशाको ही माया कहा है । यह श्राशा जो अपना नहीं है, जो श्रोरोंका है, उसको हड़प जानेको प्रेरित करती है । वाद में असत्य, हिंसा, परनिंदा, धोखा, धूर्तता, कुटिलता आदिका खेल प्रारंभ होता है । सव अनर्थ-परंपराकी जड़ यह ग्राशा है । इसलिए सव संतोंने अनेक तरीके से समझाया है कि काम, क्रोध, लोभ, असत्य, हिंसा श्रादि छोड़ना चाहिए । अरे मन ! इस शरीर पर भरोसा मत कर । दूसरोंकी संपत्ति के पीछे मत पड़ । पर स्त्रीकी आशा न कर ।
देना चीर देना !
विश्व के सभी संतोंको इन्हीं बातोंको वार-बार कहने में ज़रा भी संकोच नहीं होता । एक ही एक बात वह हजार ढंगसे कहते हैं । हजार वार कहते हैं । भले ही सुननेवाला उकता जाय किंतु वह कहते नहीं उकताते । क्योंकि उनको मानवमात्रकी सद्भावना पर विश्वास है । वह मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्यके हृदय में बसा हुग्रा विश्वात्मा एक न एक दिन अपना प्रकाश दिखायेगा । मानवकुलका दिव्यीकरण होगा । इसके लिए हमें भगवानका यंत्र बनकर चलना