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वचन-साहित्य-परिचय
है । ज्ञानका अर्थ केवल बौद्धिक जानकारी नहीं है, किंतु अनुभव-ज्ञान है । प्रत्यक्ष ज्ञान है । भक्ति, कर्म आदिका ज्ञान में ही समावेश होता है। गीता, उपनिषद् आदिमें यही कहा गयाहै । “अखिल कर्म ज्ञानमें परिसमाप्त होते हैं ।"१ "शुद्ध चित्त ध्यान करते-करते ज्ञान-प्रसाद होकर परमात्माको देखता है ।"२ "साधक भक्तिसे परमात्मा कीन है, यह जानकर उसमें प्रवेश करता है ।"३ उपनिषदोंने भी ध्यान-ज्ञानयुक्त उपासनाका महत्व गाया है । "विद्यासे अमृतत्वकी प्राप्ति होती है ।"४ "सूक्ष्मदर्शी सूक्ष्म वुद्धिसे सर्व-भूतांतर्गत गूढ़ आत्माको देखते हैं । वाणीको मनमें, मनको ज्ञानमें, ज्ञानको बुद्धिमें, बुद्धिको शांत आत्मामें लय करनेसे आत्यंतिक सत्यका दर्शन होता है ।"५ उपनिषदोंने अधिकतर ध्यान
और ज्ञानका महत्व कहा है । कहीं-कहीं कर्मका महत्व भी गाया है। ईशावास्योपनिपद्का दिव्य संदेश है कि कर्म करते हुए सी साल जीना चाहिए । निर्लेप होकर जीने का यही रास्ता है। कर्म दो प्रकारका होता है । निष्काम और सकाम । परमार्थ मार्ग में सकाम कर्मका कोई स्थान नहीं है। निष्काम कर्म ही पारमाथिक कर्म-मार्गका सहायक है। दही साधकको बंधनसे मुक्त करता है। कर्म करके भी कर्म-बंधनसे मुक्त रहने की कला सीखनी चाहिए। ऐसा कर्म चार प्रकारसे किया जा सकता है। केवल कर्तव्यके रूपमें कर्म करते रहना। फल-त्यागपूर्वक कर्म करना । अनासक्त भावसे कर्म करते जाना । और ईश्वरापण बुद्धिसे कर्म करना । गीतामें श्री कृष्णने कर्मका मर्म अच्छी तरह समझाया हैं। श्री कृष्णने अर्जुनसे कहा है, "केवल कर्म करते रहना तुम्हारा अधिकार है। उसके फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। अनासक्त भावसे कर्म करते रहनेसे पुरुष परम पदको प्राप्त करता है।"६ श्री कृष्णने यह भी कहा है, अपनाना, करना, धरना, खाना, देना, लेना, होमना, तपना आदि सब मुझे अपरा कर, इससे तू कर्म-फलात्मक बंधनसे मुक्त होकर मुझसे मिलेगा।"७ भक्तिकी तरह ध्यान कर्म आदिका पारमार्थिक साधनाके रूप में उपयोग कर लेनेकी परिपाटी प्राचीन कालसे चली आ रही है। यह परिपाटी भारतमें ही नहीं अन्य देशोंमें भी चली आ रही है । किंतु अन्य देशोंमें इन मार्गोका सांगोपांग विवेचनविश्लेषण करनेवाले ग्रंथ नहीं बने। वहाँ इन सब मार्गोका पृथक् और स्वतंत्र विकास नहीं हुआ। इसलिए भारतकी तरह वहां पृथक् संप्रदाय अथवा अनुगम नहीं बने । जैसे भारतमें वैदिक धर्म प्रचलित है वैसे भारतके बाहर प्रचलित धर्मोंमें
१. गीता ४-३३. ४. ईश. मं. ७. ७. गीता १.२७-२८.
२. मुं३-१.८. ५. क. १-३.१२-१३.
३. गीता १७.५५. ६. गीता ३-१६.